अगस्त 18, 2015

गुलज़ार साहब सालगिरह मुबारक़ हो !

ये राह बहुत आसान नहीं,
जिस राह पे हाथ छुड़ा कर तुम
यूँ तन तन्हा चल निकले हो
इस खौफ़ से शायद राह भटक जाओ ना कहीं
हर मोड़ पर मैंने नज़्म खड़ी कर रखी है!

थक जाओ अगर--
और तुमको ज़रूरत पड़ जाए,
इक नज़्म की ऊँगली थाम के वापस आ जाना!

ज़्म के बहाने अपने चाहने वालों को आवाज़ देते ये  गुलज़ार साहब हैं  जो आज 80 वें बरस में आमद फरमा रहे हैं। गुलज़ार साहब अपने वक्त की एक ऐसी महत्वपूर्ण इबारत हैं जिसे पढ़ना बेहद जरूरी है। सफेद कुर्ते में झांकता गुलज़ार साहब (मूल नाम-संपूर्ण सिहं कालरा) का शफ्फ़ाक बदन, चश्मे के पीछे से बोलती हुई आँखें और उर्दू/फ़ारसी  की चाशनी में ढली हुई उनकी ज़ुबान उनके व्यक्तिव का वह हिस्सा है जिसे कोई भी अनदेखा नहीं कर सकता। जहां एक ओर वे  निर्देशक, निर्माता, संवाद लेखक, पटकथा लेखक, गीतकार के रूप में हिन्दी फिल्मों के लिए सरमाया हैं वहीं  अदबी दुनिया में वे एक बेहतरीन किस्सागो, कवि, गीतकार, ग़ज़लकार, नाटककार के रूप में जाने जाते हैं। एक ऐसा जहीन आदमी उनके किरदार से झांकता है जिसको देखना, सुनना, पढ़ना, मिलना सब कुछ रूहानी सा लगता है। ग़ालिब, मीर, अमीर ख़ुसरो, रूमी, बाबा बुल्ले शाह, मीरा, कबीर के माध्यम से गुलज़ार की रचनाओं में जहां सूफी कलाम की खुश्बू आती है वहीं नए जमाने के लफ्ज़ों को इस्तेमाल कर वे नयी पीढ़ी के बीच भी अपनी लोकप्रियता बनाये हुए हैं। उनकी कामयाबी का एक पहलू यह भी है कि वे टी.वी. गीतों/सीरियलों के माध्यम से इतनी मकबूलियत पाते हैं कि जो किसी के लिए स्वप्न सरीखा ही हो सकता है। ‘हमको मन की शक्ति देना ‘ से लेकर ‘चड्ढी पहन के फूल खिला है‘ जैसे गीत उनकी क्रियेटिविटी का नायाब नमूना हैं।

18 अगस्त 1936 को पैदा हुए गुलजार आज के पाकिस्तान और बीते दौर के हिन्दुस्तान में पंजाब सूबे के झेलम जिले के छोटे से  कस्बा दीना में। बंटवारे के बाद गुलजार का परिवार अमृतसर और फिर  दिल्ली आ गया।  गुर्बत से जूझते परिवार को सहारा देने के लिए और अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए गुलजार ने बचपन में ही एक पेट्रोल पम्प पर नौकरी की। मगर इस दौरान उनके अन्दर शायर उन्हें परेशान करता रहता था। वे नौकरी करते थे और साथ ही शायरी भी करते हुए उसे सफ्हों पर उतारते रहते। कुछ समय बाद वे बम्बई आ गए और ‘प्रोग्रसिव राईटर ऐसोसिएशन’ से जुड गए, जिसके जरिए उन्हें गीतकार शैलेन्द्र से मिलने का अवसर मिला।  शैलेन्द्र ने उनमें गीतकार की संभावना को तलाश लिया और संगीतकार एस.डी.बर्मन से मिलवाया बल्कि ‘बंदिनी’ फिल्म में गीत लिखवाने के लिए भी  उनसे आग्रह किया । एस.डी.बर्मन ने भी उन पर भरोसा किया और सामने आया लता जी की आवाज में ‘मोरा गोरा रंग लई ले/मोहे श्याम रंग दई दे, छुप जाउंगी रात ही में, मोहे पी का संग दई दे’(1963 बन्दिनी)। इस तरह उन्हें पहले बिमल राय फिर उनके बाद ऋषिकेश मुखर्जी, हेमंत कुमार का जबरदस्त साथ मिला। बिमल राय के सानिध्य में उन्हें बन्दिनी से जो शुरूआती सफलता मिली उसे उन्होने ऋषिकेश मुखर्जी से मिलकर ‘आनंद’ (1970), ‘गुड्डी’ (1971), ‘बावर्ची’(1972) और ‘नमक हराम’(1973) के साथ-साथ असित सेन की ‘दो दूनी चार’ (1968), ‘खामोशी’(1969) और ‘सफर’(1970) जैसी फिल्मों के माध्यम से एक स्थायी पहचान के रूप में तब्दील कर लिया। 1971 में उन्होने स्वतंत्र निर्देशक के रूप में एक फिल्म बनाई ‘मेरे अपने’। 1972 में उन्होने मूक-बधिरों के भावों को उकेरते हुए एक कालजयी फिल्म बनाई ‘कोशिश’। इस फिल्म में नायक-नायिका थे संजीव कुमार और जया भादुड़ी। ‘कोशिश’ के बाद तो गलजार- संजीव कुमार की ऐसी जोड़ी जमी कि इसकी लज्ज़त आंधी (1975), मौसम (1976), अंगूर (1981) और नमकीन (1982) तक मिलती रही। जोड़ी की बात करें तो पंचम यानी आर0डी0 बर्मन और गुलजार की जोड़ी का जिक्र करना लाजिमी है। एक गीतकार और संगीतकार के रूप में इस जोड़ी ने कमाल की पेशकश दी। इन दोनों ने मिलकर 21 फिल्मों के अलावा कुछ एलबम भी किये।

गुलजार ने अलग-अलग वक्त में अलग-अलग तरीके से अपनी जोड़ी बनाई। बतौर जोड़ी उन्हें सलिल चैधरी, ए.आर. रहमान, जगजीत सिंह और फिलवक्त विशाल भारद्वाज से भी जोड़ा जा सकता है। अगर मैं इस दरम्यिाँ मीना कुमारी और गुलजार का जिक्र न करूँ तो शायद बात अधूरी रह जायेगी। ‘बेनजीर’ के सहायक निर्देशक के रूप में गुलजार को मीना कुमारी के नजदीक जाने का मौका मिला। इन दोनों के बीच में जबरदस्त भावुकता पूर्ण रिश्ता रहा। मीना कुमारी अपनी शायरी की वसीयत गुलजार के नाम कर गई। गुलजार ने अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए ‘मीना कुमारी की शायरी’ नाम से यह वसीयत पाठकों तक पहुॅचाने का कार्य किया।

फिल्मों के अलावा अदब में भी गुलज़ार की शिनाख़्त साहित्यकार की है। यूं तो गुलजार ने मुख्यतः हिन्दी, उर्दू, पंजाबी को अपनी अभिव्यक्ति का जरिया बनाया है लेकिन अवसर पडने पर उन्होने ब्रज, अवधी, राजस्थानी, हरियाणवी लोक भाषा में भी रचनायें की हैं। उन्होने चैरस रात (लघु कथाएॅ, 1962), जानम (कविता संग्रह, 1963), एक बूॅद चाॅद(कविताएॅ, 1972), रावी पार (कथा संग्रह, 1997), ‘चाँद रात और मैं’’ (2002), रात पश्मीने की, खराशें (2003) पुखराज, प्लूटो आदि कई पुस्तकें लिखी हैं। त्रिवेणी जैसी विधा के वे जनक हैं। बाल साहित्य और इवेंट थीम साँग में उनकी हैसियत एक लीजेण्ड जैसी है।

विभिन्न फिल्मी पुरूस्कारों से लेकर तमाम सरकारी सम्मान उनके हिस्से में हैं। सच तो यह है कि अब उन्हेें कोई सम्मान मिलना उस सम्मान का ही मान बढ़ाता है। उन्हें ‘जय हो’ के लिए आॅस्कर (2009), पद्म भूषण (2004) साहित्य अकादमी सम्मान (2002) के अलावा 10 फिल्म फेयर अवार्ड, ग्रेमी अवार्ड के अलावा कितने ही राष्ट्रीय/अन्तर्राष्ट्रीय सम्मान मिल चुके हैं । 2013 का दादा साहब फाल्के सम्मान से भी उन्हें नवाजा जा चुका है।


कुछ ऐसी बातें जो तुझसे कही नहीं हैं मगर
कुछ ऐसा लगता है तुझसे कभी कही होंगी

तेरे ख़याल से ग़ाफ़िल नहीं हूँ तेरी क़सम
तेरे ख़यालों में कुछ भूल-भूल जाता हूँ
जाने क्या, ना जाने क्या था जो कहना था
आज मिल के तुझे जाने क्या... !

आज भी गुलजार के गीतों में वही ताजगी और दिलोदिमाग को राहत पहुंचाने वाली तासीर बाकी है जो पचास बरस पहले थी। गुलजार साहब के लिए इस मुबारक मौके पर यही कहा जा सकता है ‘‘ तुम जियो हजार बरस........’’।