जून 18, 2012

लावा के मार्फ़त जावेद अख्तर की वापसी.... !





प्यास की कैसे लाए ताब कोई
नहीं दरिया तो हो सराब कोई

शाइरी के शौकीनों के लिए जावेद अख़्तर का नया गज़ल/नज़्म संग्रह ‘लावा’ बेशक एक दरिया ही है, सराब तो (मृगतृष्णा) कतई नहीं। एक मुद्दत बाद जावेद अख़्तर हाजिर हैं,लगभग सत्रह बरसों बाद। वैसे उनकी ये हाजिरी मजमूए के साथ तो सत्रह बरस लम्बी हो सकती है वरना अपने फिल्मी सफर के साथ उनका साथ रोज-रोज का है,चाहे वो उनके फिल्मी गीत हों, पटकथा हो, संवाद हो, रियल्टी शो हो, सेमिनार हो,अखबारों में किसी मुद्दे पर प्रतिक्रया हो या फिर टेलीविजन पर कोई चैट शो हो।
बहरहाल 20 वें विश्व पुस्तक मेले दिल्ली में जावेद अख़्तर ‘लावा’ के मार्फत फिर एक बार चर्चे में हैं। जावेद साहब जनता की नब्ज बखूबी जानते हैं तभी तो फिल्मी दुनिया में बीते लगभग चालीस बरसों से अपनी मौजूदगी धमक

अपने अदबी प्रशसंकों को ध्यान में रखकर ही जावेद साहब ने ‘लावा’ को पेश किया है। वे ये खूब जानते हैं कि अदब की महफिल में हल्कापन नहीं चल सकता सो उन्होंने ‘लावा’ के जरिए वाकई जांची-परखी चीजें परोसी हैं। वे इस संग्रह की भूमिका में लिखते हैं कि ‘‘शायरी तो तब है कि जब इसमें अक्ल की पहरेदारी भी मौजूद हो और दिल भी महसूस करे कि उन्हें तन्हा छोड़ दिया गया है। इसमें असंगति है मगर ‘‘बेखु़दी-ओ-हुशियारी ,सादगी-ओ-पुरकारी,ये सब एक साथ दरकार हैं।’’ तो जाहिर है कि शाइर अपनी जिम्मेदारी से वाकि़फ़ है। के साथ बनाये हुए हैं। जावेद साहब ये भी जानते हैं कि कौन सी चीज ‘पब्लिक’ को पसंद आती है और कौन सी चीज ‘अदबी’ लोगों को
ग़ज़ल के रवायती मिज़ाज के साथ-साथ जावेद साहब के नये-नये प्रयोग ‘लावा’ की जान हैं। वे जब यह लिखते हैं कि " जिधर जाते हैं सब, जाना उधर अच्छा नहीं लगता/ मुझे पामाल रस्तों का सफ़र अच्छा नहीं लगता" और "ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुनना,हामी भर लेना/ बहुत हैं फा़यदे इसमें मगर अच्छा नहीं लगता" तो जाहिर कर देते हैं कि ‘लावा’ के जरिए वे क्या कुछ नया देने वाले हैं। नये प्रयोगों का मज़ा इस शेर में लीजिए- "पुरसुकूं लगती है कितनी झील के पानी पे बत/पैरों की बेताबियाँ पानी के अंदर देखिए।" पानी के ऊपर बतख की ख़ामोशी और पानी के अन्दर उसके पैरों की हलचल को शायर कि
स तरह महसूस करता है और किसी खूबसूरती से व्यक्त करता है यही जावेद अख़्तर का करिश्मा है। दोस्ती- दुश्मनी के रंग उर्दू शाइरी में भरे पडे़ हैं, मगर जा़वेद के जाविए से इस रिश्ते का एक नया रंग देखें- "जो दुश्मनी बखील से हुई तो इतनी खैर है/ कि जहर उस के पास है मगर पिला नहीं रहा।"

ग़ज़ल की रिवायत को निभाना है तो जाने-अनजाने रिश्तों की,दिल की ,इश्क की गलियों से गुजरना हो ही जाता है। इस अहसास को जावेद अलग अलग तरीके से जाहिर करते हैं- "बहुत आसान है पहचान इसकी/ अगर दुखता नहीं तो दिल नहीं है" या "फिर वो शक्ल पिघली तो हर शय में ढल गई जैसे/ अजीब बात हुई है उसे भुलाने में" और इस शेर के तो क्या कहने हैं- "जो मुंतजिर न मिला वो तो हम हैं शर्मिंदा/ कि हमने देर लगा दी पलट के आने में।"

सफर में हरेक आदमी है। सफर-मंजिल का यह रिश्ता शाइरी की जान रहा है। इस मजे़दार सिलसिले को कुछ इस तरह वुसअत देते हैं कि "मुसाफि़र वो अजब है कारवाँ में/ कि जो हमराह है शामिल नहीं
है।"

चित्रपट और अदब की दुनिया में जावेद़ अख़्तर बहुत बड़ा नाम है। उनके पीछे कही न कही जां निसार अख्तर, मजाज का नाम भी जुड़ा रहता है। 17 जनवरी 1945 को ग्वालियर मे जन्मे जावेद अख़्तर का अलीगढ़, लखनऊ, भोपाल के बाद मुंबई तक का सफर जिन्दगी जीने के तरीकों की अपनी अनोखी दास्तान है। जिन्दगी जीने के अन्दाज के बारे में उनसे बेहतर और कौन बता सकता है। उनका ये शेर इसी नसीहत की बानगी है- "अब तक जि़न्दा रहने की तरकीब न आई/ तुम आखि़र किस दुनिया में रहते हो भाई ।" आदमी को परखने का अहसास बहुत नाजुक होता है। जावेद जब यह कहते है कि " लतीफ़ था वो तख़य्युल से,ख्वाब से नाजु़क/ गवाँ दिया उसे हमने ही आज़माने में तो इस नाजुकी का अहसास शिद्दत से होता है।"

तन्हाई का आलम और हिज्र की बातें शायरी के लिये मुफ़ीद जमीन बनाती हैं। इन
अनुभवों को महसूस करना शायरी के लिये बेहद जरूरी है। ‘लावा’ के वसीले से जावेद साहब इकरार करते है कि- "बहस,शतरंज, शेर ,मौसी़की/ तुम नहीं थे तो ये दिलासे रहे" और "आज फिर दिल है कुछ उदास-उदास/ देखिए आज याद आए कौन ।" लेकिन इस तन्हाई को सूफियाना और रूहानी जामा पहनाना हो तो भी जावेद अख़्तर कमतर नहीं पड़ते- "बदन में कै़द खु़द को पा रहा हूँ / बड़ी तन्हाई है,घबरा रहा हूँ ।"

वक्त के साथ सब कुछ बदलता है। वक्त त के साथ आदमी, समाज, गांव, नगर, जरूरतें सभी का नक्षा बदला है। इन बदलावों को लेकर उनकी नजर-नीयत बिल्कुल साफ है। तभी तो वे इन परिवर्तनों के लिये सच्ची बात कहते हैं कि- "तुम अपने क़स्बों में जाके देखो वहां भी अब शहर ही बसे हैं/ कि ढूँढते हो जो ज़िन्दगी तुम वो ज़िन्दगी अब कहीं नहीं है ।" जि़द और जु़नून जावेद के वे हथियार हैं जो न केवल उनके व्यक्तित्व/ शख्सियत में बल्कि उनकी शायरी में पूरे जोशोखरोस के साथ प्रकट होते हैं . वे कहते हैं - "जो बाल आ जाए शीशे में तो शीशा तोड़ देते हैं/ जिसे छोड़ें उसे हम उम्रभर को छोड़ देते हैं ।"

लफ्जों के जरिये इमेजेज खीचने में जावेद अख़्तर की कोशिशें बेहतरीन हैं। दो मिसरों में पूरी की पूरी तस्वीर खींचने में जावेद साहब का हुनर कमाल का है। ये शेर देखें जिनमे वे दो मिसरों में पू
रा पोर्ट्रेट सा खींच देते हैं- "शब की दहलीज़ पर शफ़क़ है लहू/ फिर हुआ क़त्ल आफ्ताब कोई" या "फिर बूँद जब थी बादल में ज़िन्दगी थी हलचल में/ कै़द अब सदफ़ में है बनके है गुहर तन्हा ।" यही करिश्मा इन शेरों में भी झलकता है- "थकन से चूर पास आया था इसके/ गिरा सोते में मुझपर ये शजर क्यों और कैसे दिल में खु़षी बसा लूं मैं/ कैसे मुट्ठी में ये धुंआ ठहरे ।"
एक कमी जरूर उनके प्रशंसकों को अखर सकती है वो है कुछ शेरों में दोहराव। दोहराव इस मायने मे क्योंकि उनके पहले गज़ल़/नज़्म संग्रह ‘तरकश ’ के कुछ शेर यहाँ भी जस के तस मौजूद हैं। जिन्होंने ‘तरकश ’ को पढ़ा है उन्हें ‘लावा’ मे यह दोहराव खटक सकता है। ‘तुम्हें भी याद नहीं..............’ जैसे कई शेर पहले ही काफी मकबूल हैं उन्हे इस संग्रह मे फिर से प्रस्तुत करना जरूरी नहीं था। ‘लावा’ की खूबसूरती केवल शेर-नज़्मों-कतअ तक ही नहीं सिमटी है। इस मज्मूअ के कवर पेज पर उनकी तस्वीर( जो बाबा आज़्मी ने खींची है) लाजबाव है जो पाठकों को सहज ही अपनी ओर खींचती है। पूरे कलेवर व साज सज्जा के लिये प्रकाषक राजकमल बधाई के पात्र हैं।
जावेद अख़्तर की नज्में जादू की तरह असर करती हैं । उनका कथ्य और विषय दोनों ही
इतने स्पष्ट होते हैं कि नज़्म के आखिरी सिरे तक आते आते पाठक नज़्म से अहसासो के तौर पर चस्पा हो जाता है, एकाकार हो जाता है। इस संग्रह की नज्में शबाना, अजीब आदमी था वो (कैफी आज्मी के लिये) इस बात की गवाह है।

आज सवेरे से
बस्ती मे

कत्लो-खूं का
चाकूजनी का
कोई किस्सा नहीं हुआ है
खै़र

अभी तो शाम है
पूरी रात पड़ी है।
लावा के मार्फत जावेद अख़्तर ने वो नज़्म भी सौगात मे दी है जो उन्होने 15 अगस्त 2007 को संसद मे उसी जगह से सुनाई थी जहां से कभी 15 अगस्त 1947 को आजादी का ऐलान किया गया था। वे इस नज़्म मे कहते हैं-है थोड़ी दूर अभी सपनों का नगर अपना/ मुसाफिरों अभी बाकी है कुछ सफर अपना तो लगता है कि उनकी ग़ज़लें/नज़्मे सच्चाई को बयां करने का कितना हसीं अन्दाज रखती हैं । बहरहाल ‘लावा’ के आखिरी सफहे तक आते आते यह अहसास होता है कि --

कभी ये लगता है अब ख़त्म हो गया सब कुछ
कभी ये लगता है अब तक तो कुछ हुआ भी नहीं

( ***** यह समीक्षा पाखी के जून अंक में प्रकाशित हुई है. )

जून 13, 2012

मेहदी साहब - अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिले...!


बात उन दिनों की है जब मैं ग्रेजुएसन फर्स्ट इयर में था. ग़ज़ल सुनने का नया नया शौक लगा था. बिना किसी दुराग्रह के सबकी ग़ज़लें सुन लिया करते थे. ऐसे ही एक रोज़ हॉस्टल के किसी मित्र के कमरे में बैठे हुए अचानक एक नयी ग़ज़ल सुनने को मिली. " मैं होश में था तो फिर उसपे मर गया कैसे ....." यही बोल थे उस ग़ज़ल के जिसको सुनकर गायक की आवाज़ ने मुझे फनकार का नाम जानने को बेचैन कर दिया , कैसेट का कवर उठा कर पढ़ा तो पता चला कि ग़ज़ल मेहदी हसन ने गायी है. बस यहीं से मेहदी साहब को सुनने की ऐसी ललक पैदा हुयी जो हर दिन बढती ही गयी. इसके बाद तो हद यह थी कि सिर्फ मेहदी साहब को सुनना रह गया. दीवानगी का आलम यह रहा कि उसके बाद से अब तक जब भी मेहदी साहब का कोई गीत-ग़ज़ल-ठुमरी- क्लासिकल तराना मिला तुरंत अपने म्यूजिक लाइब्रेरी का हिस्सा बना लिया. लगभग बीस एक बरस गुज़र गए उनकी सोहबत में. कभी " मैं ख्याल हूँ किसी और का मुझे सोचता कोई और है " को गुनगुनाया तो कभी " रफ्ता रफ्ता वो मिरी हस्ती के सामा हो गए" को. रोमांस किया तो उनकी गायी ग़ज़ल " दुनिया किसी के प्यार में ज़न्नत से कम नहीं" नेपथ्य में गूंजती सी प्रतीत हुयी. कभी मुश्किल दौर आया तो दिल को " एक सितम और मेरी जाँ अभी जाँ बाकी है" याद आया. इनके अलावा जब भी वक्त मिला तो" शोला था जल बुझा हूँ...", " रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ....", "दायम पड़ा हुआ है.... ", " प्यार भरे दो शर्मीले नैन" जैसी ग़ज़लों को सुनते रहे और हैरत करते रहे कि इस ज़मीं पर रहती दुनिया में कोई इतने करीने से किसी कलाम को कोई अपनी आवाज़ दे सकता है.

ऐसे में लम्बे अरसे से बीमार चल रहे शहंशाह ए ग़ज़ल मेंहदी हसन के इंतकाल की खबर संगीत की दुनिया के लिए बहुत ख़राब खबर है. 85 वर्षीय मेंहदी हसन फेफड़ों में संक्रमण से जूझ रहे हसन को गत 30 मई को कराची के आगा खान अस्पताल के आईसीयू में भर्ती कराया गया था. उनके ख़राब स्वास्थ्य को लेकर लगातार ख़बरें आ ही रहीं थीं. तीन दिन पहले हसन के कई अंगों में संक्रमण हो गया था. हालत से जूझते हुए 13 जून को दोपहर में उन्होंने अंतिम सांस ली.
‘रंजिशें सही’, ‘जिंदगी में तो सभी प्यार किया करते हैं‘, ‘पत्ता पत्ता बूटा बूटा’ जैसी बेहतरीन गजलों को अपनी बेहतरीन आवाज से नवाजने वाले हसन का जन्म राजस्थान के लूना में 18 जुलाई 1927 को हुआ था. हसन को संगीत विरासत में मिला था. वह कलावंत घराने से ताल्लुक रखते थे, वे इस घराने के 16वीं पीढ़ी के फनकार थे. उन्होंने अपने पिता आजम खान और चाचा उस्ताद इस्माइल खान से संगीत की तालीम ली जो ध्रुपद गायक थे. हसन ने बेहद कम उम्र से ही गाना शुरू कर दिया और आठ बरस की उम्र में पहला कार्यक्रम पेश किया. भारत के विभाजन के बाद वह पाकिस्तान चले गए थे. पाकिस्तान में शुरुआती दिनों में उन्होंने
मोटर मिस्त्री जैसा काम भी किया मगर इस दौरान भी संगीत के प्रति उनका जुनून बरकरार रहा. उन्हें 1957 में पहली बार रेडियो पाकिस्तान के लिए गाने का मौका मिला. उन्होंने शुरुआत ठुमरी गायक के रूप में की क्योंकि उस दौर में गजल गायन में उस्ताद बरकत अली खान, बेगम अख्तर और मुख्तार बेगम का नाम चलता था.धीरे-धीरे वह गजल की ओर मुड़े. इसके बाद मेहदी हसन ने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा. इसके बाद वे फिल्मी गीतों की दुनिया में व गजलों के निर्विवाद बादशाह के रूप में स्थापित हो गए.
यह उनके फन की काबिलियत थी कि उन्हें शहंशाह ए गजल कहा जाने लगा. गंभीर रूप से बीमार होने के बाद उन्होंने 80 के दशक के आखिर में गाना छोड़ दिया.
1957 से 1999 तक संगीत की दुनिया में लगातार सक्रिय रहे मेहदी हसन ने गले के कैंसर के बाद पिछले 12 सालों से गाना लगभग छोड़ दिया था. उनकी अंतिम रिकॉर्डिग 2010 में सरहदें नाम से आई थी. अहमद फ़राज़, फैज़, परवीन शाकिर, ग़ालिब की ग़ज़लों को उन्होंने इस तरह गया कि सुनते हुए यही महसूस होता है कि जैसे ग़ज़लों की रूह पर जमा परतें उखाड़ रही हों. हर लफ्ज़ को उनकी गायकी से नया उफक मिलता था. श्रोता उन्हें सुनते वक्त कहीं खो जाता था. मेहदी हसन वह शख्स थे जिन्हें हिंदुस्तान व पाकिस्तान में बराबर का सम्मान मिलता था. इन्होंने अपनी गायिकी से दोनों देशों को जोड़े रखा था. उनका निधन गजल गायिकी के उस स्तम्भ का गिरने जैसा है जो शायद कभी पुनर्स्थापित किया जा सके.

मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि इस अज़ीम गायक की शान में क्या लिखूं.... बस यही कह सकता हूँ कि ''अब के बिछडे़ तो शायद ख्वाबों में मिले/जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिले/ ढूंढ़ उजडे़ हुए लोगों में वफा के मोती/ये खजाने तुझे मुमकिन है खराबों में मिले ..'' !

आज चंद ग़ज़लें मेरे जेहन में आ रहीं हैं जिन्हें बीते दो दशकों में मैंने अनगिनत बार सुना होगा. ये वो ग़ज़लें हैं जिनमें मेहदी साहब की आवाज़ का उतार चढ़ाव और उनकी लफ्ज़ आदायगी का जादू मेरे सर चढ़ कर बोलता रहा है उन्हें याद कर रहा हूँ-----
  • गुलों में रंग भरे बादे नौ बहार चले
  • आये कुछ अब्र कुछ शराब आये
  • पत्ता पत्ता बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
  • तुम्हारे साथ भी तनहा हूँ
  • मुहब्बत करने वाले
  • रफ्ता रफ्ता
  • भूली बिसरी चंद उम्मीदें
  • अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिले
  • मुझे तुम नज़र से गिरा तो रहे हो
  • हर दर्द को ए जाँ मैं सीने में सामा लूं
  • रोशन जमाल ए यार से हैं
  • भूली बिसरी चाँद उम्मीदें
  • गुंचा ए शौक लगा है
  • रंजिश ही सही
  • चरागे तूर जलाओ बड़ा अँधेरा है
  • प्यार भरे दो शर्मीले नैन
  • दिल ए नादान तुझे हुआ क्या है
  • वो दिल नवाज़ है
  • आज वो मुस्कुरा दिया
  • जब आती है तेरी याद
  • मैं नज़र से पी रहा हूँ
  • ये मोजिज़ा भी मुहब्बत कभी
  • दिल की बात लबों पे लाकर
  • दुनिया किसी के प्यार में जन्नत से कम नहीं
  • दायम पड़ा हुआ हूँ
  • मुब्हम बात पहेली जैसी
  • एक बस तू ही नहीं मुझसे खफा हो बैठा
  • एक सितम और मेरी जाँ अभी जाँ बाकी है
  • शोला था जल बुझा हूँ
  • ज़िन्दगी में तो सभी प्यार किया करते हैं
  • उसने जब मेरी तरफ प्यार से देखा होगा
  • किया है प्यार जिसे हमने ज़िन्दगी की तरह
  • मैं ख्याल हूँ किसी और का
  • राजस्थानी लोक गीत पधारो म्हारे देश
  • जब उस ज़ुल्फ़ की बात चली
  • तूने ये फूल जो जुल्फों में लगा रखा है