जुलाई 31, 2011

मुंशी प्रेमचंद जी, को याद करते हुए.........!!!!








............... अरसा गुज़र गया मगर अब भी प्रेमचंद के हामिद, बदलू चौधरी, निर्मला, होरी, माधो, घीसू, धनिया...... दिलो-दिमाग पर छाए से रहते हैं। कुछ पात्र जेहन से कभी अलग नहीं हो पाते........ एक राबता सा कायम हो जाता है उनके साथ. महान कहानीकार उपन्यास सम्राट प्रेमचंद के पात्र इस बात को और भी मजबूती प्रदान करते हैं...... ! मुद्दत गुज़र गयी मगर चौथी पांचवी दर्जे में पढ़ी हुयी कहानियों के पात्र जेहन में आज भी जस के तस कैद हैं. आज प्रेमचंद के जन्मदिन पर उनकी याद आना लाजिमी है.....!

सौ वर्ष गुज़र गए मगर प्रेमचंद के लेखन से आगे निकलना तो दूर कोई उनके आस पास भी नहीं पहुँच पाया.... उनकी कालजयी कहानियों का आलम है कि पीढियां बदल गयीं मगर उनकी कहानियाँ आज भी जीवित हैं. यह कहने में कोई संकोच नहीं कि वे असली भारतीय लेखक थे जिसने बगैर लाग लपेट के तत्कालीन देशिक परिस्थितयों को अपने लेखन का आधार बनाया. धर्म निरपेक्षता, हिंदू-मुसलमान का साझा कल्चर ग़रीबी, किसान-मजदूरों की समस्या , अशिक्षा, राष्ट्रीय आन्दोलन, महाजनी व्यवस्था, दहेज, वर्णाश्रम व्यवस्था, दलित-नारी चेतना........... सब कुछ उनके लेखन में दिखता है. यद्दपि वे उर्दू की पृष्ठभूमि से आए थे मगर उनकी प्रगतिशीलता का आलम यह था कि उनके 'हंस' के संपादन मंडल में छह भाषाओं के बड़े लोग थे जो हंस को एक अखिल भारतीय पत्रिका के रूप में और स्वयं प्रेमचंद को अखिल भारतीय व्यक्तित्व के रूप में स्थापित करते थे. 'स्वराज' उनके लेखन का प्रमुख विषय था बल्कि उन्होंने 1930 में कहा भी कि वे जो कुछ लिख रहे हैं वह स्वराज के लिए लिख रहे हैं. उन्होंने स्वराज्य का अर्थ स्पष्ट किया कि महज़ सत्ता परिवर्तन ही स्वराज नहीं है............ सामाजिक स्वाधीनता भी ज़ुरूरी है. सामाजिक स्वाधीनता से उनका तात्पर्य सांप्रदायवाद, जातिवाद, छूआछूत और स्त्रियों की स्वाधीनता से भी था. उनकी प्रगतिशीलता का जो आधार था उसे बहुत बुनियादी क्राँतिकारी कहना चाहिए. उनकी रचनाओं पर नज़र डालें तो उसमें ज़मींदारी व्यवस्था के ख़िलाफ़ ग़रीब किसानों की लड़ाई है. जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ और दबे कुचले लोगों की लड़ाई है. प्रेमचंद किसी तरह के जातिवाद, किसी तरह के धर्मोन्माद, किसी तरह की सांप्रदायिकता से मुक्त एक मानवधर्मी लेखक रहे हैं.

उनके साहित्य का सबसे बड़ा आकर्षण यह है कि वह अपने साहित्य में ग्रामीण जीवन की तमाम दारुण परिस्थितियों को चित्रित करने के बावजूद मानवीयता की अलख को जगाए रखते हैं। प्रेमचंद का मानवीय दृष्टिकोण अद्भुत था. वह समाज से विभिन्न चरित्र उठाते थे. मनुष्य ही नहीं पशु तक उनके पात्र होते थे. उन्होंने हीरा-मोती में दो बैलों की जोड़ी, आत्माराम में तोते को पात्र बनाया. गोदान की कथाभूमि में गाय तो है ही. प्रेमचंद ने अपने साहित्य में खोखले यथार्थवाद को प्रश्रय नहीं दिया. प्रेमचंद के खुद के शब्दों में वह आदर्शोन्मुखी यथार्थवाद के प्रबल समर्थक हैं. उनके साहित्य में मानवीय समाज की तमाम समस्याएँ हैं तो उनके समाधान भी हैं. प्रेमचंद का लेखन ग्रामीण जीवन के प्रामाणिक दस्तावेज के रूप में इसलिए सामने आता है क्योंकि इन परिस्थितियों से वह स्वयं गुजरे थे. अन्याय, अत्याचार, दमन, शोषण आदि का प्रबल विरोध करते हुए भी वह समन्वय के पक्षपाती थे. प्रेमचंद अपने साहित्य में संघर्ष की बजाय विचारों के जरिये परिवर्तन की पैरवी करते हैं. उनके दृष्टिकोण में आदमी को विचारों के जरिये संतुष्ट करके उसका हृदय परिवर्तित किया जा सकता है।





लमही गाँव (वाराणसी) में 31 जुलाई 1880 को जन्में प्रेमचंद का पारिवारिक व्यवसाय कृषि , निर्धनता के कारण डाकघर में काम करना पड़ा. उनका मूल नाम धनपत राय था. उर्दू में पढ़ाई शुरू करने वाले प्रेमचंद ने उर्दू में ही अपना लेखन शुरू किया और कई पुस्तकों का उर्दू में अनुवाद किया. प्रेमचंद ने अध्यापन को अपना पेशा बनाया. लेखन के अलावा उन्होंने मर्यादा, माधुरी, जागरण और हंस पत्रिकाओं का संपादन भी किया. सरस्वती के संपादक महावीर प्रसाद द्विवेदी से मिली प्रेरणा के कारण उन्होंने हिन्दी उपन्यास सेवासदन लिखा तदोपरांत प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, कर्मभूमि और गोदान छपा. गोदान को प्रेमचंद की सबसे परिपक्व कृति मानी जा सकती है.

प्रेमचंद जी के साहित्य को पढ़ते वक्त अजीब टीस सी उठती है...... कमजोर पात्रों के दुःख दर्द को जिस सहजता से उन्होंने बयान किया है वह दुनिया के किसी साहित्यकार के बस में नहीं......!!!! जीवन के दुखों को झेलते इन पात्रों से एक जुड़ाव सा हो जाता है... हारे हुए आदमी को जिस तरीके से वे पेश करते हैं वो अद्भुत है. गुलज़ार साहब की एक नज़्म यहाँ दोहराने का जी कर रहा है. यह नज़्म प्रेमचंद के कृतित्व और व्यक्तित्व को बहुत खूबसूरती से बयाँ करती है.......




प्रेमचंद की सोहबत तो अच्छी लगती है लेकिन उनकी सोहबत में तकलीफ़ बहुत है...
मुंशी जी आप ने कितने दर्द दिए

हम को भी और जिनको आप ने पीस पीस के मारा

दर्द दिए हैं आप ने हम को मुंशी जी‘

होरी’ को पिसते रहना और एक सदी तक पोर पोर दिखलाते रहे हो

किस गाय की पूंछ पकड़ के बैकुंठ पार कराना था

सड़क किनारे पत्थर कूटते जान गंवा दी

और सड़क न पार हुई, या तुम ने करवाई नही की
‘धनिया’ बच्चे जनती, पालती अपने और पराए भी खाली गोद रही

कहती रही डूबना ही क़िस्मत में है तो बोल गढ़ी क्या और गंगा क्या
‘हामिद की दादी’ बैठी चूल्हे पर हाथ जलाती रहीकितनी देर लगाई तुमने एक चिमटा पकड़ाने में‘घीसू’ ने भी कूज़ा कूज़ा उम्र की सारी बोतल पी लीतलछट चाट के अख़िर उसकी बुद्धि फूटीनंगे जी सकते हैं तो फिर बिना कफ़न जलने में क्या है‘एक सेर इक पाव गंदुम’, दाना दाना सूद चुकातेसांस की गिनती छूट गई है
तीन तीन पुश्तों को बंधुआ मज़दूरी में बांध के तुमने क़लम उठा ली‘शंकर महतो’ की नस्लें अब तक वो सूद चुकाती हैं.‘ठाकुर का कुआँ’, और ठाकुर के कुएँ से एक लोटा पानीएक लोटे पानी के लिए दिल के सोते सूख गए‘झोंकू’ के जिस्म में एक बार फिर ‘रायदास’ को मारा तुम ने
मुंशी जी आप विधाता तो न थे, लेखक थेअपने किरदारों की क़िस्मत तो लिख सकते थे?'








मुद्दतें गुज़र गयीं मगर उनकी प्रासंगिकता आज भी है और कल भी. आज महान उपन्यासकार और कहानीकार प्रेमचंद के वें जन्मदिन पर शत शत नमन....!!

जुलाई 23, 2011

बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होगी......!





फिर से तबादला...... अब गौतम बुद्ध नगर के लिए जाने का फरमान हो गया है. प्रदेश की प्रगति के मानकों के आधार पर शायद सबसे प्रगतिगामी शहर में अगला पड़ाव होगा. बदायूं से विदा हो लिए....... मगर बदायूं को छोडते वक्त एहसास हुआ कि इस कम समय में ही इस शहर से कितना लगाव हो गया था.......!

वैसे भौगोलिक रूप से देखा जाए तो बदायूं उत्तर प्रदेश के नक्शे पर तराई के उस इलाके के रूप में जाना जाता है जो वर्षाधिक्य क्षेत्र है. समूचा क्षेत्र गंगा रामगंगा जैसी बडी नदियों से घिरा हुआ है.गत वर्ष जब मैं बदायूं पहुंचा था तो यह क्षेत्र बाढ से घिरा हुआ था, तत्काल आपदा राहत कार्यक्रमों से जुडना पड़ा, महीने दो महीने में जैसे तैसे बाढ की तबाही कम हुई तो पंचायत चुनाव सिर पर खड़े हुए और उसके बाद फिर एक के बाद एक चुनौती भरे काम..........! बहरहाल मैं इस समय सरकारी कामों की फेहरिस्त में नहीं पड़ना चाहता....! ये सब तो चलता ही रहता है ! फिर से एक बार बदायूं के बारे में.... बदायूं दर असल पुरानी रवायतों का शहर है. इतिहास गवाह है कि दिल्ली सल्तनत से लेकर मुगलों के समय तक यह क्षेत्र कृषि उत्पादन के लिहाज़ से उपजाऊ इलाके के रूप में अपनी पहचान रखता था . बदायूं अपने समय में यह महत्वपूर्ण 'इक्ता' (सैनिक इकाई ) के रूप में जाना जाता था. बदायूं की एक महत्वपूर्ण पहचान इसकी सांस्कृतिक गतिविधियों से भी है.कव्वाली, गजल, सूफी गायन, तबला वादन जैसी विधाओं में बदायूं के हुनरमंदों ने अपनी महत्वपूर्ण पहचान बनाईहै .....! पद्म् भूषण उस्ताद् निसार हुसैन से लेकर महान गीतकार शकील बदायूंनी , गीतकार उर्मिलेश , डा0 वृजेन्द्र अवस्थी से लेकर आज के समय के उस्ताद गायक राशिद खान ( जब वी मेट फेम....... आओगे जब तुम साजना के गायक ) बदायूं की पहचान को और भी पुख्ता करते है.......! विकास की आपाधापी से दूर इस छोटे से शहर (वैसे माफ कीजिएगा........आबादी और क्षेत्रफल के हिसाब से यह उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े जिलों में से एक है)!

बदायूं में
तो सीमेन्ट कंक्रीट के जंगलात है और तेज भागती कारों की आवाजें........! सच तो यह है कि शाम के बाद पूरा शहर जैसे उनींदा सा हो जाता है ......... ! ऐसा महसूस होता है कि गंगा के तट से टकरा कर हवाएं आती हैं और पूरे शहर को नींद के झोंके में ले लेती हैं. कोई माल कोई रेस्तरां और कोई बहुमंजिला अपार्टमेन्ट.......! यह भी कहा जा सकता है कि बस किसी गाँव के आकार को कुछ 'इनलार्ज' कर दें तो बदायूं की शक्ल आप बन जायेगी...!

इस शहर में कुछ ऐसे लोगों से रिश्ते बने जिनसे दिली जुड़ाव हो गया. अमित गुप्ता जी, उदयराज जी, मनोज कुमार,प्रदीप , अक्षत, नियाजी, अकरम, हसीबसोज, राजन मेहरीरत्ता, रोम्पी, किशन, दीक्षित,जहीर, अब्बास ..............जैसे लोग बदायूं में जुड़े. यह जुडाव दिन ब दिन और भी गहरा होता गया. नए साल पर धमाकेदार 'कल्चरल इवनिंग' रही हो या होली पर रंग बिखरे हों..... ककोडा का परंपरागत मेला रहा हो या हर इतवार को क्रिकेट का मजमा........नियाजी के तबले की थाप हो या कुमार विश्वास की कविताओं का खुमार .........सब कुछ इसी बदायूं की सरजमीं पर हुआ........! इन लोगों के अलावा मैं दो लोगों का नाम और लेना चाहूँगा बल्कि यूं कहिए कि दो युगलों के नाम लेना चाहूँगा जिनकी संगत ने बदायूं प्रवास को और खुशगवार बना दिया........... ये दो युगल थे बृजेश /विनीता और नीरज / मीतू ऐसा लगा कि ये दोनो युगल हमारे घर परिवार के ही अभिन्न सदस्य हैं
.... खाने-पीने-उठने-बैठने-चलने-घूमने से लेकर सांस लेने तक की कवायद साथ-साथ......!

बहरहाल,
हम मुलाजिमों के लिए तबादला एक सतत प्रक्रिया है. बदायूं में जो भी वक्त गुजरा, वो अपने पुराने दिनों में लौट जाने वाला एहसास था. ये वो अहसास था जो इस बात को और पुख्ता करता है कि जिन्दगी कहीं है तो वो 'दिखावे- आपाधापी- चकाचौंध" से हटकर है.....! अब जबकि गौतमबुद्वनगर(नोएडा-ग्रेटरनोएडा ) जाने का फरमान हुआ तो बदायूं से बिछुडने का गम तारी है, मगर यह मानते हुए कि तबादला तो सरकारी नौकरी का यह हिस्सा है......... चल दिये है गौतमबुद्वनगर की ओर.........! देखते हैं कि इस नए पड़ाव पर क्या कुछ होता है ! मगर यह सुनिश्चित है बृजेश की उन्मुक्त हंसी, नीरज की समृद्व शब्द सम्पदा और उसका तत्क्षण प्रयोग, विनीता के हाथें के करेले, नियाजी के तबले के तीन ताल का स्वर, पीहू के अंकल कहने का अन्दाज और मीतू की बेक्ड वेजीटेबिल लम्बे समय तक जेहन में रची बसी रहेगी.....!

विश्वास है कि दुनिया छोटी है और गोल है........ सो उम्मीद कि फिर मिलेंगे बल्कि जरूर मिलेगें, लेकिन भी तो यही एहसास साथ है कि 'बीते हुए लम्हों की कसक साथ तो होगी......'!!!!!