अप्रैल 14, 2011

लाइव मैनपुरी मुशायरा (पार्ट-2)



............ मुशायरा परवान चढ़ चुका था अब उस्ताद शायरों की बारी थी. नाज़िम मुशायरा ने माइक पर अकील नोमानी को दावत दी. इधर बीते कुछ बरसों में अकील नोमानी, मंच मुशायरों के चर्चित नाम रहे हैं. अकील नोमानी ने ’’ अपने काबू से निकल जाने को जी चाहता है, गिरते गिरते भी संभल जाने को जी चाहता है. लाख मालूम हों झूठे हैं दिलासे लेकिन, बाज़ औकात बहल जाने को जी चाहता है. ’’ कलाम सुनाया तो सामयीन की आखिरी हद तक वाह-वाह का शोर गूंज उठा. पहले तहत और फिर तरन्नुम............................ दोनों तरीके से अपनी गजलों को अकील नोमानी ने सुनाया. सामयीन की मांग पर उन्होंने अपनी गजल ’’महाजे-जंग पर अक्सर बहुत कुछ खोना पड़ता है, किसी पत्थर से टकराने को पत्थर होना पड़ता है. खुशी गम से अलग रहकर मुकम्मल हो नहीं सकती, मुसलसल हँसने वालों को भी आखिर रोना पड़ता है. मैं जिन लोगों से खुद को मुख्तलिफ महसूस करता हूँ, मुझे अक्सर उन्हीं लोगों में शामिल होना पड़ता है .’’ सुनायी तो मंच उनकी जिन्दाबाद की आवाजों से गूंज उठा.


अब तक मेहमान शायरों का तआर्रूफ कराते हऐ उन्हें माइक पर दावत देने में मसगूल नाजिम मंसूर उस्मानी को अपना कलाम सुनाने के लिये जब डा0कलीम कैसर ने दावत दी तो माहौल और भी खास हो उठा. एक मुददत से मंसूर उस्मानी मुशायरों के खास नाजिम (संचालक) रहें हैं. देश से लेकर विदेशों में चाहे सऊदी अरब हो ,बहरीन हो,कनाडा हो या अमेरिका...........हरेक जगह मुशायरों में उनकी निजामत ने अपनी कामयाबी का परचम फहराया है. वास्तव में निजामत मुशायरे की कामयाबी -नाकामयाबी बहुत बड़ी वज़ह होती है....................... मंसूर साहब ने यह जिम्मेदारी अपने कन्धों पर जब जब उठायी है, मुशायरों में कामयाबी की नई इबारत गढ़ी है. बहरहाल मंसूर साहब ने ’’चाहे दिल ही जले रोशनी के लिये , हम सफर चाहिये जिन्दगी के लिये. दुश्मनी के लिये सोचना है गलत, देर तक सोचिये दोस्ती के लिये." और " कभी कभी तो हमें दिल ने ये मलाल दिया , तुम्हारी याद भी आई तो उसको टाल दिया. दिलों की बात में दिल्ली को जोड़कर यारों, गजल को हमने बड़ी कशमकश में डाल दिया. " गजल पढ़कर अपने हुनर का सबूत पेश किया।


मुशायरा अपने अन्तिम पड़ाव में था ........... आवाज़ दी गयी मेहमान शायरा इशरत आफरीन को . मैनपुरी मुशायरे के लिए मोहतरमा इशरत आफरीन अमेरिका से आयी थीं. टेक्सास यूनीवर्सिटी की हेड ऑफ़ उर्दू डिपार्टमेंट और शायरी की एक बड़ी शख्सियत मोहतरमा इशरत आफरीन ने संयोजक हृदेश सिंह के महज़ एक अनुरोध पर उन्होंने हैदराबाद का मुशायरा छोड़कर मैनपुरी आना मन्जूर किया था. उपस्थिति सामयीन ने उनकी भारत आमद का खड़े होकर इस्तकवाल किया . खुद मोहतरमा इशरत आफरीन ने अपनी जिम्मेदारी समझते हुये शानदार शेर सुनाये. उनकी गजल ’’भूख की कड़वाहट से सर्द कसीले होंठ खून उगलते, सूखे, चटखे, पीले होंठ. टूटी चूड़ी ठंडी लड़की बागी उम्र, सब्ज़ बदन पथराई आँखें नीले होंठ. सूना आँगन तनहा औरत लंबी उम्र,ख़ाली आँखें भीगा आँचल गीले होंठ’’ ने बैठी हुयी महिला श्रोताओं को खास तौर पर आकर्षित किया. ग़ज़ल में फेमिनिस्ट मूवमेंट की बड़ी लम्बरदार के रूप में पहचानी जाने वाली मोहतरमा इशरत आफरीन ने " लड़कियां माँओं जैसा मुकद्दर क्यों रखती हैं, तन सहरा और आँख समंदर क्यों रखती हैं. माँए अपने दुःख की विरासत किसको देंगी, संदूकों में बंद ये जेवर क्यों रखती हैं." सुनकर सामईन को दीवाना बना दिया. उन्हें सुनकर लगा कि गजल पढ़ने का शऊर तो कोई मोहतरमा इशरत आफरीन से सीखे। अगर महान गजल गायक जगजीत सिंह ने उनकी गजल गाई हैं, तो उनका चुनाव कहीं से गलत नहीं है. उन्होंने मैनपुरी के इस मंच के माध्यम से पूरे आवाम को अपनी मेहमान नवाजी का शुक्रिया कहा.


अब बारी थी मुशायरे की शान, हिन्दुस्तान के अजीम शायर और इस मुशायरे के सदर-ए-मोहतरम ज़नाब वसीम बरेलवी साहब का. नाजिम ने ज़नाब वसीम बरेलवी को माइक पर आने की दावत दी तो सुबह के तीन बजे चुके थे। मगर सामयीन की बड़ी तादाद उन्हें सुनने के लिये अभी तक जमी हुयी थी. वसीम साहब ने मंच पर आते ही मैनपुरी की जनता को सलाम करते हुये एक से बढ़कर एक शेर पढ़े " शाम तक सुबह की नजरों से तर जाते हैं, इतने समझौंतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं. इक जुदाई का वह लम्हा कि जो मरता ही नहीं, लोग कहते थे कि सब वक्त गुजर जाते हैं" जैसे शेरों से आगाज़ कर उन्होंने जनता की मांग पर " उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है, जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है. नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाये, कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है. थके हारे परिन्दे जब बसेरे के लिये लौटे , सलीक़ामन्द शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है. बहुत बेबाक आँखों में त'अल्लुक़ टिक नहीं पाता, मुहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है. सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का, जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है." सुनाया. अगले एक घन्टे तक वे बिना रूके एक से बढ़कर एक शेर से भीड़ को नवाजते रहे. "कौन सी बात कहाँ कैसे कही जाती है, ये सलीक़ा होए तो हर बात सुनी जाती है. जैसा चाहा था तुझेए देख न पाये दुनिया, दिल में बस एक ये हसरत ही रही जाती है. अपनी पहचान मिटा देना हो जैसे सब कुछ , जो नदी है वो समंदर से मिली जाती है " जैसे लोकप्रिय शेर कभी तहत तो कभी तरन्नुम में पढ़कर वसीम साहब अपनी मकबूलियत का एहसास करा गए.


आखिर में सुबह चार-सवा चार बजे संयोजक हृदेश सिंह ने अपनी संयोजक समिति और आयोजक समिति के साथ-साथ हाजरीन, मेहमान शायर और मोहतरम मेहमानों का शुक्रिया अदा किया तथा मुशायरे के बेहतरीन इन्जामात और सह- संयोजन के लिए स्थानीय कवि दीन मोहम्मद दीन और फ़साहत अनवर को बधाईयाँ दीं तो मैनपुरी की जनता ने भी संयोजक हृदेश सिंह का तालियाँ बजाकर सम्मान व धन्यवाद ज्ञापित किया

इस प्रकार एक अदबी मुशायरा मैनपुरी की इस प्रदर्शनी के इतिहास में सोने के अक्षरों में कैद हो गया. सच तो यह है कि यह एक ऐसा मुशायरा था , जिसे लोग लम्बे समय तक भुला नहीं पायेंगे.



अप्रैल 13, 2011

लाइव मैनपुरी मुशायरा...पार्ट-1


09 अप्रेल 2011, शनिवार स्थान कादम्बरी मंच श्री देवी मेला एवं ग्राम सुधार प्रदर्शनी मैनपुरी समय रात 9 बजे....... जी हां यही देश -काल परिस्थितियां थीं जब इस ऐतिहासिक मंच व प्रदर्शनी में अखिल भारतीय मुशायरे का आगाज हुआ. यूँ तो मुशायरे की शमा अपने नियत समय से लगभग एक घण्टे देर से रोशन हुई........ लेकिन सामयीन की अपने शायरों को सुनने-देखने की इन्तजारी न तो गैर अनुशासित हुई, न ही उनकी आवाज शोर-शराबे में में तब्दील हुई. बहरहाल फीता काटने और शमा रोशन करने की जरूरी रस्मों के बाद निजामत जनाब मंसूर उस्मानी और सदर-ए-मुशायरे की कमान जनाब प्रो0 वसीम बरेलवी ने संभाली तो मुशायरे का माहौल एक दम से भव्य हो उठा.


निजाम ने ’नात‘ को पढ़ने के लिये जब तरन्नुम के उस्ताद शायर जनाब अकील नोमानी को पुकारा तो जनता सीधे उस रूहानी ताकत से जुड़ा हुआ महसूस करने लगी, जिसके दम पर पूरी कायनात रोशन है......."नवी का दीन यहाँ भी बहुत फल फूला, अकील इसलिए हिन्दोस्तान को भी सलाम" जैसा कलाम पेश कर अकील नोमानी ने मुशायरे का आगाज किया.


इसके बाद मेघा कसक ने अपने कलाम से पण्डाल मे उपस्थित तीन हजार की भीड़ को अपना दीवाना बना दिया. खूबसूरत आवाज और-अपने पुरकशिश अन्दाज में मेघा ने "ये हकीकत है के हम चाहें न चाहें लेकिन ज़िन्दगी मौत की आगोश में सर रखती है, भूल बैठे हो अमीरी के नशे में साहिब मुफलिसी अब भी दुआओं में असर रखती है '' सुनाकर भीड़ को दीवाना बना दिया। मेघा की तरन्नुमी लहर हालांकि ठहरने का नाम नही ले रही थी, लेकिन शायरों की लम्बी फेहरिस्त को देखते हुये इसे रोका जाना भी जरूरी था सो अगले शायर सर्वत जमाल को आवाज दी गयी.


सर्वत ने आते ही अपनी ‘फिक्र की शायरी' के हवाले से जनता को मानसिक रूप से झिंझोड़ दिया. "आराम की सभी को है आदत करेंगे क्या, ये सल्तनत परस्त बगावत करेंगे क्या. मज़हब की ज़िन्दगी के लिए खून की तलब, हम खून से नहाके इबादत करेंगे क्या. तक़रीर करने वालों से मेरा सवाल है,जब सामने कड़ी हो मुसीबत करेंगे क्या. " काफिये के नये प्रयोगों से सर्वत ने मंच को मुशायरे को ‘अदबी मुशायरे ‘ के रूप में तब्दील करने का काम किया जो मुशायरे के आखिर तक मुसलसल जारी रहा। सर्बत ने अपने कलाम से जनता को जेहनी तौर पर खुद से और अवाम की माजूदा परिस्थितियों से जोड़ लिया.


इसके बाद लखनऊ से आये युवा शायर मनीष शुक्ल ने बड़े ही प्यारे अन्दाज में "बात करने का हसीं तौर तरीका सीखा, हमने उर्दू के बहाने से सलीका सीखा" और "हमने तो पास ए अदब में बंदापरवर कह दिया, और वो समझे कि सच में बंदापरवर हो गए ", जैसे शेर पढ़कर अपने कद का एहसास दिलाया. प्रांतीय सिविल सेवा के अधिकारी मनीष शुक्ल को मैनपुरी की जनता ने हर शेर पर दाद दी. उनके हरेक शेर पर मैनपुरी की जनता ने खड़े होकर तालियां बजाकर उनका इस्तकबाल किया. जनता ने उनके शेर "आँखों देखी बात है कोई झूठ नहीं, चोट लगाकर कहते हैं कि रूठ नहीं. खुद ही भरते जाते हैं गुब्बारे को , फिर कहते हैं ए गुब्बारे फूट नहीं " को बार बार पढने की ताकीद की.


म0प्र0 उर्दू अकादमी की सचिव मोहतरमा नुसरत मेहदी ने अपना कलाम सुनाने की जैसे ही भूमिका तैयार की, उपस्थित श्रोताओं ने उनकी आमद पर देर तक तालियां बजाई. मोहतरमा मेंहदी ने भी श्रोताओं की अपेक्षाओं और मिजाज के मुताबिक कलाम पेश किया. उनकी गजल " आप शायद भूल बैठे हैं यहाँ मैं भी तो हूँ, इस ज़मीं और आसमान के दरमियाँ मैं भी तो हूँ. आज इस अंदाज़ से तुमने मुझे आवाज़ दी, यक ब यक मुझको ख्याल आया कि हाँ मैं मैं भी तो हूँ. तेरे शेरों से मुझे मंसूब कर देते हैं लोग, नाज़ है मुझको जहां तू है वहां मैं भी तो हूँ." को जनता की भरपूर दाद मिली। पहली बार मैनपुरी आई मोहतरमा मेंहदी मैनपुरी बार-बार आने का वायदा करके जनता की वाह-वाही लूट ले गयीं। अब तक साढ़े ग्यारह बज चुके थे, माहौल में शेरो शायरी का जुनून हावी हो चुका था.........


माहौल को देखते हुये ‘आमीन' के शायर आलोक श्रीवास्तव को आवाज दी गयी. उनकी निहायत सीधे-सादे अल्फाज वाली शायरी ने जनता से उन्हे ऐसे जोड़ा की गजल-दर-गजल उनकी वाह-वाही बढ़ती गयी. इंसानी रिश्तों ओर उनके नाज़ुक एहसासात की रचनाओं को सुनाकर आलोक श्रीवास्तव ने महफ़िल लूट ली. उनकी ग़ज़ल "तुम्हारे पास आता हूँ तो साँसें भीग जाती हैं, मुहब्बत इतनी मिलती है की आँखें भीग जाती हैं.तबस्सुम इत्र जैसा है हंसी बरसात जैसी है, वो जब भी बात करता है तो बातें भीग जाती हैं. ज़मीं की गोद भरती है तो कुदरत मुस्कुराती है, नए पत्तों की आमद से ही शाखें भीग जाती हैं" बहुत पसंद की गयी.


इसके बाद मुशायरा ख्यातिलब्ध और सीनियर शायरों की तरफ मुखातिब हुआ. मंचासीन डा0 कलीम कैसर ने सामयीन के मिजाज और उनकी नब्ज को पकड़ते हुये अपना कलाम चाहतों की ज़रा सी दस्तक पर दिल का राज़ खोल सकता है,इश्क ऐसी ज़बान है प्यारे जिसको गूंगा भी बोल सकता है और “ज़रूरी है सफ़र लेकिन सफ़र अच्छा नहीं लगता , बहुत दिन घर पे रह जाओ तो घर अच्छा नहीं लगतापेश किया. डा0 कैसर मंच के बड़े शायर हैं, .................उन्होने मैनपुरी की जनता को उनके ‘अदबी टेस्ट‘ के लिये बार-बार बधाई दी और कहा कि यह मुशायरा इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इस मुशायरे ने यह साबित कर दिया है कि यदि अदबी मुशायरे आयोजित किया जाएं तो जनता उसे आंखो-आंख लेती है.


माहौल में पसरी गंभीरता को हंसी-मंजाक के रंगों से भिगोने के लिये स्थानीय कवि जयेन्द्र पाण्डेय ‘लल्ला‘ और हजल उस्ताद शरीफ भारती को बुलाया गया. शरीफ भारती ने आधे-पौन घण्टे तक अपने अन्दाज से मौजूद तादाद को पेट पकड़ने पर मजबूर कर दिया. किसी चोर के घर के घर में घुसने पर नामचीन शायरों की प्रतिक्रिया का अन्दाज करने वाले उनकी प्रस्तुति ने सामयीन को हंसते-हंसते लोट-पोट कर दिया. " छत पे हम समझे तुझे वो तेरी अम्मी निकली, इश्क क्या ख़ाक करें दूर का दिखता ही नहीं " अपने गजब के ‘सेंस आफॅ ह्यूमर‘ और 'चालू जुमलों' से जनता को गुदगुदा कर जब वे वापस हुये तो जनता ने उन्हे एक बार और बुला लिया.


इस मजाहिया मंजर के बाद मदन मोहन दानिश को माइक पर दावत दी गयी. दानिश मौजूदा दौर के सर्वाधिक ‘फिक्रमंद शायर' के रूप में अपनी पहचान स्थापित कर चुके हैं। दानिश ने “ डूबने की जिद पे कश्ती आ गयी, बस यहीं मजबूर दरिया हो गया. गम अँधेरे का नहीं दानिश मगर वक्त से पहले अँधेरा हो गया “और “ गुज़रता ही नहीं वो एक लम्हा, इधर मैं हूँ कि बीता जा रहा हूँ “ पढ़कर जनता की तालियां लूटीं.

*अगली किस्त में मंसूर उस्मानी, इशरत अफरीन और वसीम साहब के कलाम के बारे में रिपोर्टिंग....!

अप्रैल 07, 2011

मैनपुरी मुशायरा (दूसरी किस्त) ..... !!


मैनपुरी की ऐतिहासिक श्रीदेवी मेला एवं ग्राम सुधार प्रदर्शनी 2011में आयोजित होने वाले मुशायरे में आने वाले मेहमान शायरों की परिचय श्रृंखला में कल मैंने आपको तीन ग़ज़लकारों से तआर्रुफ़ कराया था....इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए मैं आज उन चार शायरों के विषय में लिखने का प्रयास कर रहा हूँ जो इस मुशायरे को ख़ास बनाने के लिए अपनी आमद करेंगे....!


शुरूआत करता हूँ अपने प्रिय शायर वसीम बरेलवी साहब से- दरअसल इस मुशायरे की सदारत ज़नाब वसीम बरेलवी साहब ही करेंगे. वसीम साहब मौजूदा दौर के उन शायरों में से एक हैं जिन्होने संवेदनाओं को महत्व देते हुए अपना रचना संसार सजाया है. ‘फिक्र' की शायरी उनकी पहचान है. जीवन का दर्शन उनकी शायरी में लफ़्ज - लफ़्ज पगा हुआ है. मैं खुश किस्मत हूँ कि मुझे उनका बहुत प्यार मिला है. निहायत खूबसूरत और संजीदगी वाले इस इन्सान की मैं इसलिए बहुत इज्जत करता हूँ क्योंकि वसीम साहब एक अच्छे शायर तो हैं हीं--इन्सान उससे भी शानदार हैं. इस मुशायरे में वे ‘हैदराबाद‘ के उस मुशायरे को छोड़कर आ रहे हैं, जो शायद उनके लिए बेहतर प्लेटफार्म साबित हो सकता था पर उन्होने ‘मोहब्बत‘ का साथ दिया और हैदराबाद की बजाय मैनपुरी आना स्वीकार किया. वसीम साहब की गजलियात के विषय में तो कुछ भी लिखा ही नहीं जा सकता. कई शोध उन की शायरी पर हो चुके हैं. जगजीत सिंह, चन्दन दास और स्वर कोकिला लता जी तक वसीम साहब की शायरी के दीवाने हैं. 'आँखों आँखों रहे' और 'मौसम अन्दर बाहर के' जैसी कृतियों के सहारे उनकी रचनाएँ हम तक पहुँच चुकी हैं.... उनके बारे में लिख पाना मेरी औकात से बाहर है....फिलहाल मैं वसीम साहब वो ग़ज़ल पोस्ट कर रहा हूँ जो मुझे हमेशा जीने का रास्ता दिखाती है........-


उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है,

जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है !!

नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाए

कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है !!

थके हारे परिन्दे जब बसेरे के लिये लौटे

सलीक़ामन्द शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है !!

बहुत बेबाक आँखों में त'अल्लुक़ टिक नहीं पाता

मोहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है !!

सलीका ही नहीं शायद उसे महसूस करने

जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है !!


वसीम साहब के बाद मुखातिब होते हैं अकील नोमानी की तरफ. अकील नोमानी भी मौजूदा दौर के उन शायरों में से एक है जिनके कंधो पर शायरी का भविष्य टिका हुआ है. हाल ही में उनका ‘रहगुजर‘ गजल संग्रह प्रकाशित हुआ है. अकील नोमानी एक खामोश शायर हैं. सच तो यह है कि वे जितने बड़े शायर हैं, उतनी मकबूलियत उनके हिस्से में नहीं आई. खैर...आज नहीं तो कल वक्त पहचानेगा उन्हेंऔर ज़रूर पहचानेगा....! वैसे अकील नोमानी इन सबसे बेखबर अपने सफर पर बढ़ते जा रहे हैं. उनका हर एक शेर उनके अहसासों में इंसानियत होने का सुबूत पेश करता है. अकील साहब ने इस मुशायरे में अव्वल दर्जे के शायरों को बुलाने में संयोजक का हाथ बंटाया है उसके लिए संयोजक उनके कर्जदार हैं. अकील तो सरकारी मुलाजिम हैं मगर उनकी शायरी में जो सोच है वो ऐसी है जो उन्हें कुछ ख़ास बनाती है। वे स्वयं ही अपने बारे में कहते हैं कि ‘‘मैने शेर कहते वक्त हमेशा फ़ितरी तकाजों और जबानो- बयान के सेहतमंद उसूलों का ही एहतराम किया है‘‘ तो कहीं से गलत नहीं लगता. उनकी इस बात को ये गज़ल और भी पुख्ता करती है-


महाजे़-जंग पर अक्सर बहुत कुछ खोना पड़ता है

किसी पत्थर से टकराने को पत्थर होना पड़ता है !!

ख़ुशी ग़म से अलग रहकर मुकम्मल हो नहीं सकती

मुसलसल हॅसने वालों को भी आखि़र रोना पड़ता है !!

अभी तक नींद से पूरी तरह रिश्ता नहीं टूटा

अभी आँखों को कुछ ख्वाबों की ख़ातिर सोना पड़ता है !!

मैं जिन लोगो से खुद को मुख़तलिफ़ महसूस करता हूँ

मुझे अक्सर उन्हीं लोगों में शामिल होना पड़ता है !!

किसे आवाज़ दें यादों के तपते रेगज़ारों में

यहॉ तो अपना-अपना बोझ खुद ही ढोना पड़ता है !!


बढ़ते हैं अगले नाम की तरफ....अगला नाम है मोहतरमा नुसरत मेहदी साहिबा का . नुसरत मेहदी भी उन शायरों में से एक हैं जिन्होंने पिछले दिनों में अपनी शायरी अपने कलाम की वज़ह से एक मुकम्मल जगह बनाई है. फिलहाल वे मध्यप्रदेश उर्दू अकादेमी के सचिव के पद का कार्य कर रही हैं........ वैसे मोहतरमा नुसरत मेहदी का उत्तर प्रदेश से पुराना नाता है. वे नगीना, ज़िला बिजनौर में इल्तिजा हुसैन रिज़वी के घर पैदा हुई, शुरुआती तालीम उत्तरप्रदेश में ही हुई इसके बाद वे भोपाल चलीगयीं.वे शिक्षा महकमे में वे अहम ओहदे पर रहीं हैं. उनके कलाम, कहानियांअक्सर इंग्लिश, हिन्दी और उर्दू अखबारों, मैग्ज़ीन और जरनल्स में छपती रहती है. टी.वी. और रेडियों के ज़रिये भी इनके कलाम को सुना व देखा जा सकता है. समाज सेवा के शौक के अलावा समाजी व अदबी तन्ज़ीमों से जुड़ी हुई है. घर का माहौल अदबी रहा है. इनके शौहर असद मेहदी भी कहानिया लिखतें है. वे हिन्दुस्तान के कई शहरों में मुशायरों और सेमीनारों के ज़रिये भोपाल शहर की नुमाइंदिगी कर चुकी है. मैनपुरी में वे पहली दफा अपने कलाम का परचम लहरायेगीं।


इनके साथ ही एक और आमंत्रित शायर का ज़िक्र करना चाहूँगा . वे भी युवा शायर हैं और अदब के शायर हैं. नाम है मनीष शुक्ल. मनीष सरकारी मुलाजिम हैं...वैसे अगर वे सरकारी मुलाजिम न होते तो शायद उनके लिए बहुत बेहतर होता क्योंकि तब वे निश्चित ही नामवर बड़े शायरों की फेहरिस्त में होते... खैर ! मेरा और मनीष कासाथ गत 12 बरस से है. मनीष से मेरा साथ तब से है जब हमारी नयी नयी नौकरी लगी थी . हम ट्रेनिंग में लखनऊ में थे और फिनान्सियल इंस्टिट्यूट में ट्रेनिंग ले रहे थे तभी शेर ओ शायरी के शौक ने हम को एक दूसरे के करीब ला दिया . हम लोग नैनीताल में भी ट्रेनिंग साथ साथ कर रहे थे ....तब ये शौक और परवान चढा. हम दोनों घंटो एक दूसरे को शेर ओ शायरी को शेयर करते. बहरहाल मनीष के साथ रिश्ते दिन ब दिन मजबूत हुए, मुझे ये कहने में कोई हिचक नही कि मनीष आज मेरे सबसे अच्छे दोस्तों में से एक है. मेरी पत्नी अंजू के वे मुंहबोले भाई भी हैं. उम्र में 5 बरस बड़ा होने के कारण मनीष मेरे बड़े भाई के रूप में भी है. उनकी सबसे ख़ास बात ये है की अच्छे अधिकारी होने के साथ साथ वे एक अच्छे शायर भी हैं। बड़ी खामोशी के साथ वे अपना साहित्य सृजन में लगे हुए हैं और मज़े की बात ये है की उनकी शायरी में अदब तो है ही जीवन के मूल्यों की गहरी समझ भी है. मेरे अन्य शायर दोस्तों की तरह वे भी दिखावे और मंच की शायरी से दूर रहते हैं . उनको पहली बार मंच पर लाने का काम मैंने तब किया जब मैं मीरगंज में उप जिलाधिकारी था और एक मुशायरा वहां आयोजित कराया था. 1970को उन्नाव में जन्मे मनीष शुक्ला की एक ग़ज़ल यहाँ पेश है ............निश्चित रूप से अच्छी लगेगी -


कागजों पर मुफलिसी के मोर्चे सर हो गए,

और कहने के लिए हालात बेहतर हो गए !!

प्यास के शिद्दत के मारों की अजियत देखिये ,

खुश्क आखों में नदी के ख्वाब पत्थर हो गए

ज़र्रा ज़र्रा खौफ में है गोशा गोशा जल रहे,

अब के मौसम के न जाने कैसे तेवर हो गए !!

सबके सब सुलझा रहे हैं आसमाँ की गुत्थियां,

मस'अले सारे ज़मी के हाशिये पर हो गए !!

फूल अब करने लगे हैं खुदकुशी का फैसला,

बाग़ के हालात देखो कितने बदतर हो गए !!

क्रमश:

अप्रैल 06, 2011

मैनपुरी का मुशायरा... पहली किश्त !


मैनपुरी की ऐतिहासिक श्रीदेवी मेला एवं ग्राम सुधार प्रदर्शनी २०११ शुरू हो चुकी है.... इस नुमाइश में कादंबरी मंच पर हमेशा से बेहतरीन साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते रहे है. इस वर्ष शहर के युवा पत्रकार हृदेश को इस मुशायरे का संयोजक बनाया गया है . गत वर्ष उन्होंने युवा महोत्सव का शानदार संयोजन किया था, संभवत: उनकी मेहनत और उनकी जीवटता को मद्देनज़र रखते हुए इस बार उन्हें आल इण्डिया मुशायरे की कमान सौंपी गयी गयी है.... ! संयोजक ह्रदेश से बात हुयी तो उन्होंने मुशायरे में आने वाले शायरों की फेहरिस्त सुनायी तो मन खिल उठा.... अच्छा लगा कि हमारे शहर में इस दर्जे का मुशायरा हो रहा है. इस बार के मुशायरे में जो शायर जुट रहे हैं वे सारे के सारे अव्वल दर्जे के शायर हैं, सोचा कि मुशायरे से पूर्व इन सब हुनरमंदों से आप सबका राब्ता करा दूं..... दो-तीन कड़ियों की इस पोस्ट का पहला अंक आज पेश कर रहा हूँ।

इस मुशायरे की शान होंगी मोहतरमा इशरत आफरीन......! वे इस मुशायरे को इंटरनेशनल दर्ज़ा दिलाएंगी क्योंकि मोहतरमा पाकिस्तान की हैं और फिलहाल अमेरिका में शिफ्ट हो चुकी हैं.....! हमारी खुशकिस्मती होगी उन्हें सुनना। मोहतरमा इशरत आफरीन का नाम उर्दू अरब में बडी इज्ज़त के साथ लिया जाता है. वे मूलतः पाकिस्तानी हैं जो एक भारतीय वकील जनाब़ सैयद परवेज से विवाह करने के बाद अमेरिका में हयूस्टन टेक्सास में बस गयीं. मोहतरमा इशरत आफरीन उर्दू-अदब की उन नामचीन शायराओं में से एक हैं जिन्होने ‘‘नारीवादी आन्दोलन‘‘ को चलाने में मजबूत भूमिका निभाई है. अदा ज़ाफरी, जोहरा निगाह, फहमीदा रियाज़, किश्वर नाहीद, परवीन शाकिर की श्रृंखला में मोहतरमा इशरत आफरीन का नाम बड़े अदब के साथ शामिल किया जाता है. मोहतरमा आफरीन के दो गज़ल संग्रह ‘कुंज पीले फूलों का‘ (1985) तथा ‘धूप अपने हिस्से की‘ (2005) प्रकाशित हो चुके हैं. मुझे याद आ रहा है कि जगजीत सिंह ने मोहतरमा की एक गज़ल गाई है जो बहुत पॉपुलर हुयी.....

अपनी आग को जिन्दा रखना कितना मुश्किल है,

पत्थर बीच आईना रखना कितना मुश्किल है !!

चुल्लू में हो दर्द का दरिया ध्यान में उसके होंठ,

यू भी खुद को प्यासा रखना कितना मुश्किल है !!

आज कल मोहतरमा आफरीन टेक्सास यूनीवर्सिटी में उर्दू की हेड आफ डिपार्टमेण्ट हैं। भारत में उनका आगमन, और वो भी मैनपुरी मुशायरे में हमारे लिए शान की बात होगी। हम तो बस यही कहेंगे कि मोहतरमा इशरत आफरीन अपने नाम के मुताबिक ‘उपलब्धि की सकारात्मक प्रतिक्रिया‘ ही साबित होंगी.

अब चलते हैं मंच के अगले नामवर शायरों की जानिब.....! इधर कुछ समय से जिन युवा गज़लकारों ने बडी मजबूती से अपनी कलम से अपने होने का एहसास कराया है उनमें से ‘आलोक श्रीवास्तव‘ एक बडा नाम है। आलोक मेरे मित्र हैं और सच तो यह है कि मुझे फक्र है कि आलोक मेरे मित्र हैं. आलोक को उनके शानदार लेखन के लिए हाल ही में रूस का साहित्यिक ‘पुश्किन ‘ अवार्ड मिला है. युवावस्था में ही इस शायर की कृति ‘आमीन‘ धूम मचा चुकी है. गज़ल गायक जगजीत सिंह और शुभा मुदगल ने यदि इस युवा शायर की ग़ज़लें गाई है तो उसका चुनाव कहीं से गलत नहीं है. मध्यप्रदेश के सांस्कृतिक नगर विदिशा में आलोक श्रीवास्तव का बचपन गुज़रा और वहीं से आपने हिंदी में स्नातकोत्तर तक शिक्षा ग्रहण की. बाद में वे पत्रकारिता से जुड़ गए. बेहद बारीक़ अहसासात को स्पर्श करती हुई आपकी ग़ज़लियात अपनी संवेदनाओं के लिये जानी जाती हैं. सलीक़े से कही गई कड़वी बातें भी आपकी रचनाधर्मिता की उंगली पकड़ कर अदब की महफ़िल में आ खड़ी होती हैं. जगजीत सिंह और शुभा मुद्गल जैसे फ़नक़ारों ने आपकी ग़ज़लियात को स्वर दिया है. इन दिनों आप दिल्ली में एक समाचार चैनल में कार्यरत हैं. यदि पुरस्कारों की फ़ेहरिस्त बनाई जाए तो ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान 2002′; ‘मप्र साहित्य अकादमी का दुष्यंत कुमार पुरस्कार-2007′; ‘भगवशरण चतुर्वेदी सम्मान 2008′; ‘परंपरा ऋतुराज सम्मान-2009′ और ‘विनोबा भावे पत्रकारिता सम्मान-2009′ आपके खाते में अभी तक आते हैं. कल ही वे अपनी नयी ग़ज़ल मुझे फ़ोन पर सुनकर एहसासों से तर बतर कर रहे थे.....फिलहाल मैं यहाँ उनकी उस ग़ज़ल को पोस्ट जकर रहा हूँ जिसने मुझे उनका मुरीद बना दिया.... मुलाहिजा फरमाएं -

चिंतन, दर्शन, जीवन, सर्जन, रूह, नज़र पर छाई अम्मा

सारे घर का शोर-शराबा, सूनापन, तन्हाई अम्मा !!

घर के झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे

चुपके -चुपके कर देती है, जाने कब तुरपाई अम्मा !!

सारे रिश्ते- जेठ-दुपहरी, गर्म-हवा, आतिश, अंगारे,

झरना, दरिया, झील, समन्दर, भीनी-सी पुरवाई अम्मा !!

बाबूजी गुज़रे आपस में सब चीज़ें तक्सीम हुईं,

तो-मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा !!

अब ज़रा आगे बढ़ते हैं....... आलोक श्रीवास्तव की ही उम्र के ही एक और शायर से तआर्रुफ़ करा रहा हूँ नाम है मदन मोहन 'दानिश'......वे सिर्फ नाम के ही नहीं वाकई 'दानिश' हैं। दानिश भी उन नौजवान शायरों में से हैं जिनकी शायरी उनकी उम्र से बड़ी लगती है।यदि उनके बारे में अगर आपको पता न हो तो उनकी शायरी पढने-सुनाने के बाद यही महसूस करेंफ्गे की दानिश ज़रूर ही कोई बुजुर्ग शायर होंगे. उनके बारे में राहत इन्दौरी जैसे नामचीन शायर अगर यह कहते हैं कि "शायरी पुलसरात पर नहीं तो कम अज़ कम रस्सिओं पर चलने का अमल ज़रूर है. आसमानों को पढ़ना, ख़लाओं को सुनना और मौत को जीने का हुनर है. बीसवीं सदी की आखिरी दहाई में जिन चंद नौजवानों ने मुझे मुतवज्जा किया उनमें एक नाम मदन मोहन दानिश का है." तो कत्तई गलत नहीं कहते. निदा फाजली तो यहाँ तक कहते हैं कि दानिश की ग़ज़ल अपने शख्सी दायरे में इस विधा के तकाजों का एहतराम भी करती है और इन्हीं पाबंदियों में अपने अंदाज़ संवारती है. वो आज के शायर हैं. आज की ज़िन्दगी से उनकी ग़ज़ल का रिश्ता है. इस रिश्ते को उन्होंने ग़ज़ल के तवील इतिहास के शऊर से ज़यादा पुख्ता बनाया है और जो जिया है उसे ग़ज़ल में दर्शाया है. उन्होंने अपने लिए जिस भाषा का इन्तखाब किया है वो सड़क पर चलती भी है, वक़्त के साथ बदलती भी है, चाँद के साथ ढलती भी है. मुझे याद है जब उनकी ग़ज़ल की पुस्तक "अगर" छापी तो उसकी एक प्रति बड़े प्यार से उन्होंने मुझे भेजी थी... "अगर" आज तक मेरी शेल्फ में सहेजी हुयी है.....जब भी कुछ नया पढने का मन करता हूँ तुरंत उनकी किसी भी ग़ज़ल के दो तीन शेर पढता हूँ यकीं मानिये जिंदगी से जुदा हुआ महसूस करता हूँ। उनकी एक ग़ज़ल मुझे बेहद पसंद है यहाँ लगा रहा हूँ....... आप भी महसूस कीजिये-

जीते जी ये रोज़ का मरना ठीक नहीं,

अपने आप से इतना डरना ठीक नहीं।

मीठी झील का पानी पीने की खातिर,

इस जंगल से रोज़ गुज़रना ठीक नहीं।

कुछ मौजों ने मुझको भी पहचान लिया,

अब दरया के पार उतरना ठीक नहीं।

वरना तुझसे दुनिया बच के निकलेगी,

ख़ुद से इतनी बातें करना ठीक नहीं।

सीधे सच्चे बाशिंदे हैं बस्ती के,

दानिश, इन पर जादू करना ठीक नहीं।

क्रमश:

**सन्दर्भ- कविता कोष,गूगल.