दिसंबर 19, 2011

आम आदमी के दर्द और आक्रोश की आवाज़-अदम गोंडवी !




खुरदुरी 'धरती की सतह' पर नंगे पाँव चलते और 'समय से मुठभेड़' करते अदम साहब भी 18 दिसंबर की अल सुबह सवा पांच बजे इस संसार को छोड़ कर चल दिए......! वैसे भी बीते दिनों में कई सृजन धर्मियों ने संसार छोड़ दिया है. वाकई इस बरस के आखिर तक आते आते एहसास हो रहा है कि कितने सारे नगीने विदा हो गए..... श्रीलाल शुक्ल, जगजीत सिंह, भूपेन दा, देवानंद, शम्मी कपूर, भारत भूषण और अब अदम गोंडवी साहब. अदम साहब का जाना ग़ज़ल के संसार से सच्चाई का जाना है..... तल्ख़ तेवरों में सच को कहने का जितना जज़्बा उनमें था शायद ही समकालीन ग़ज़लकारों में किसी में रहा हो.....! उन्होंने सच को सिर्फ कहा ही नहीं जिया भी वरना कोई तो वज़ह नहीं थी कि आखरी वक्त भी वे तीन लाख क़र्ज़ और 20 बीघा ज़मीन गिरवी रखे हुए संसार से विदा हो गए. अदम गोंडवी उन रचनाकारों में थे जिन्होंने बिंब और प्रतीकों से आगे निकल कर आम आदमी की ज़ुबान को अभिव्यक्ति की वुस'अत बख्शी.......! धूमिल और दुष्यंत की परमपरा को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने जो लिखा वो एक दम सच और बेबाक रहा........ ! आम आदमी से जुड़े सारोकार और उसकी भावनाओं को मंच से आवाज़ देने में अदम साहब का कोई जोड़ नहीं था...... ! 'समय से मुठभेड़' नाम से जब उनका संग्रह आया तो सोचिए कि कैफ़ भोपाली ने लंबी भूमिका हिंदी में लिखी और उन्हें फ़िराक, जोश और मज़ाज़ के समकक्ष बताया ....!

अदम साहब अपने इस नाम से इतने मशहूर थे कि उनका असली नाम रामनाथ सिंह तो बहुत कम लोग जानते थे. 22 अक्तूबर 1947 उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के आटा परसपुर नामक छोटे से गाँव में पैदा हुए इस फक्कड़ी स्वाभाव वाले इस कवि को देश के किसी भी कवि सम्मलेन में अपने पहनावे की वजह से अलग से पहचान लिया जाता था. 1980 और 90 के दशक में उनकी गज़लें सुनने के लिए श्रोता रात रात भर उनका इन्तिज़ार करते रहते थे. वे खेती किसानी करते रहे और अपने आस पास के परिवेश की आवाज़ बन कर गूंजते रहे. उनकी कविताओं- गजलों में आक्रोश था, आम आदमी का दर्द था.....! इस दर्द की आवाज़ को महसूस करें इस रचनाओं के जरिये......------

गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे
पारलौकिक प्यार का मधुमास लेकर क्या करें

या
फिर

जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे
कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे

और ये कालजयी रचना

काजू भुनी प्लेट मे ह्विस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में

तुम्हारी फ़ाइलों में गांव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आंकडे झूठे हैं ये दावा किताबी है

या

फिर ज़ुल्फ़-अंगडाई-तबस्सुम-चांद-आइना-गुलाब
भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इन का शबाब


अदम साहब का पहनावा आचार व्यवहार हमेश ठेठ गंवई रहा ...... उनसे मिलिए तो लगता था देश के किसी आम आदमी से आपका साबका पड़ा हो......! वे ऐसे ही दावा नहीं करते थे कि- वर्गे-गुल की शक्ल में शमशीर है मेरी गज़ल.... उनका हर लफ्ज़ हमारे गाँव-खेत -खलिहान का आईना रहा.

लगी है होड सी देखो अमीरों और गरीबों में
ये गांधीवाद के ढांचे की बुनियादी खराबी है

तुम्हारी
मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के
यहां जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है
********
घर
में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है
********
भीख
का ले कर कटोरा चांद पर जाने की ज़िद
ये अदा ये बांकपन ये लंतरानी देखिए

मुल्क जाए भाड में इससे इन्हें मतलब नहीं
कुर्सी से चिपटे हुए हैं जांफ़िसानी देखिए

*******

भूख
के अहसास को शेरो सुखन तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो

जो
गज़ल माशूक के जलवों से वाकिफ़ हो गई
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है

कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है

रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है
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फटे कपड़ों में तन ढाके गुज़रता है जहाँ कोई
समझ लेना वो पगडण्डी 'अदम' के गाँव जाती है

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न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से

कि अब मर्क़ज़ में रोटी है,मुहब्बत हाशिये पर है
उतर आई ग़ज़ल इस दौर मेंकोठी के ज़ीने से

अदब का आइना उन तंग गलियों से गुज़रता है
जहाँ बचपन सिसकता है लिपट कर माँ के सीने से

बहारे-बेकिराँ में ता-क़यामत का सफ़र ठहरा
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से

अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है
सँजो कर रक्खें ‘धूमिल’ की विरासत को क़रीने से.

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घर में ठन्डे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है

बगावत के कमल खिलते हैं दिल के सूखे दरिया में
मैं जब भी देखता हूँ आँख बच्चों की पनीली है

सुलगते ज़िस्म की गर्मी का फिर अहसास हो कैसे
मोहब्बत की कहानी अब जली माचिस की तीली है


गरीबी- वेबा और दर्द की आवाज़ बन कर एक अरसे तक मंच के माध्यम से सत्ता को आईना दिखाते रहे अदम साहब की इस विदाई पर अश्रुपूरित श्रद्धांजलि.

दिसंबर 17, 2011

100वीं पोस्ट के मार्फ़त आपका शुक्रिया.....!


दोस्तों ...... एक अरसे बाद हाज़िर हूँ. संख्या के तौर पर मेरी यह 100वीं पोस्ट है...... ! 100वीं पोस्ट तक का यह सफ़र वाकई सृजन और संवाद के लिहाज़ से बहुत अच्छा रहा है.
लगभग तीन साल के इस सफ़र में पहली पोस्ट से विगत पोस्ट तक जिस तरह आप सब ने प्यार दिया, ब्लॉग पर नज़र डाली और कमेन्ट प्रेषित किये, उन सबका दिल से शुक्रिया अदा करता हूँ..... !
एक उलझन थी कि 100वीं पोस्ट किस पर लिखूं.....कई शुभचिंतकों से इस विषय पर सलाह मशविरा भी किया, अधिकांश ने सलाह दी कि नयी ग़ज़ल पोस्ट करिए, अरसे से ब्लॉग पर ग़ज़ल पोस्ट नहीं की. कई ख्याल मन में थे..... कभी सचिन के सौंवें शतक पर लिखने का मन था तो कभी सहवाग के दोहरे शतक पर लिखने का जी चाहा........... कई सृजनधर्मियों की सौवीं वर्षगाँठ भी इस बरस मानी जा रही है, सोचा उन पर लिखूं.... बहरहाल मन की उड़ान पर बंदिशें लगाते हुए अंतत: दो ग़ज़लें पोस्ट कर रहा हूँ.

( हाँ एक बात और इधर 'लफ्ज़' पत्रिका में मेरी कुछ गज़लें प्रकाशित हुयी हैं.... यदि वक़्त मिले तो पढ़िएगा..... प्रतिक्रियाओं का बेसब्री से इन्तिज़ार रहेगा....).

फिलहाल आपकी नज़र यह प्रस्तुति .......------

कुछ लतीफों को सुनते सुनाते हुए
उम्र गुजरेगी हंसते हंसाते हुए

अलविदा कह दिया मुस्कुराते हुए
कितने ग़म दे गया कोई जाते हुए

सारी दुनिया बदल सी गयी दोस्तो
आँख से चाँद परदे हटाते हुए

सोचता हूँ कि शायद घटे दूरियां
दरमियाँ फासले कुछ बढ़ाते हुए

एक एहसास कुछ मुखतलिफ सा रहा
सर को पत्थर के साथ आजमाते हुए

ज़िन्दगी क्या है, क्यों है, पता ही नहीं
उम्र गुजरी मगर सर खपाते हुए

याद आती रहीं चंद नदियाँ हमें
कुछ पहाड़ों में रस्ते बनाते हुए

चाँद है गुमशुदा तो कोई गम नहीं
चंद तारे तो हैं टिमटिमाते हुए

******

जहाँ हमेशा समंदर ने मेहरबानी की
उसी ज़मीं पे किल्लत है आज पानी की

उदास रात की चौखट पे मुन्तजिर आँखें
हमारे नाम मुहब्बत ने ये निशानी की

तुम्हारे शहर में किस तरह ज़िन्दगी गुज़रे
यहाँ कमी है तबस्सुम की, शादमानी की

मैं भूल जाऊं तुम्हें सोच भी नहीं सकता
तुम्हारे साथ जुड़ी है कड़ी कहानी की

उसे बताये बिना उम्र भर रहे उसके
किसी ने ऐसे मुहब्बत की पासबानी की

सादर!

नवंबर 25, 2011

अदब की इबादत- ' इबारत' !



20 नवम्बर2011 ,....... ग्वालियर के उस खूबसूरत से सभागार में जहां बड़ी संख्या में ज़हीन लोगों की नुमाइन्दगी थी, मौका था ’इबारत’ की दूसरी साहित्यिक पेशकश का जिसमें ’कविता की जरूरत’ पर विवेचन होना था और होना था भारत-पाकिस्तान के जाने माने शायरों का गज़ल पाठ। इस कार्यक्रम में आने का आमंत्रण जब युवा एवं जाने माने गज़लकार मित्र मदन मोहन ’दानिश ’ ने दिया तो मैं मना नहीं कर सका। उम्मीद के मुताबिक ही ’इबारत’ की यह शाम रही जिसमें ’कविता की जरूरत’ पर विवेचन के लिए प्रख्यात विद्वान आचार्य नन्दकिशोर आमंत्रित थे जबकि गज़ल/नज़्मों के लिए मुहम्मद अलवी, फ़रहत एहसास, -----थे और महफि़ल की शान थीं पाकिस्तान की शायरा मोहतरमा किश्वर नाही़द.

कर्यक्रम ठीक समय से शुरू हुआ.... दानिश ने कार्यक्रम की शुरूआती औपचारिकताओं के बाद आचार्य नन्दकिशोर को बुलवा दिया. ’कविता की जरूरत’ पर आचार्य ने जो विवेचन किया वो मंत्रमुग्ध कर देने वाला था उनके बोलने में एक अजीब सा लालित्य था जो उनके ज्ञान व विषय पर उनकी पकड़ को साफ दिखा रहा था. ’ज्ञान’ व ’सूचना’ के अन्तर को स्पष्ट करते हुए उनका यह निष्कर्ष रहा कि कविता अन्ततः ज्ञान की ही अभिव्यक्ति है. उन्होंने कविता में शब्दों के जोड़-तोड़ को कविता मानने से इन्कार करते हुए कहा कि वह रचना निरर्थक है जो ’ज्ञान’ की अभिव्यक्ति न दे सके. लम्बे विवेचन के दौरान श्रोता उन्हें मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहे. भाषाई पाण्डित्य और विचारों को सही शब्द देने में उनकी महारत वाकई नया अनुभव था.

इस विवेचन के बाद बारी थी नामचीन पांच शायरों का कलाम सुनने की. मुम्बई के डॉ कासिम, नोयडा के फ़रहत एहसास, दिल्ली के जुबैर रिज़वी के बाद सीनियर शायर मुहम्मद अलवी को सुनना व देखना अपने आप में एक उपलब्ध रही. 84 वर्षीय शायर मो. अल्वी अपने कलाम की वज़ह से दुनिया भर में मशहूर हैं. उन्होने खराब स्वास्थ्य के बावजूद अपनी नज़्में व गज़ले सुनाकर मौजूद सामयीन को अहसासों से सराबोर कर दिया.

दुःख का एहसास मारा जाए
आज
जी खोल के हरा जाए
ढूँढता
हूँ ज़मीन अच्छी सी
ये
बदन जिसमे उतारा जाए
और

लबों पे यूँ हीं हंसी भेज दो
मुझे
मेरी पहली ख़ुशी भेज दो
अँधेरा
है कैसे तेरा ख़त पढूं
लिफाफे
में कुछ रोशनी भेज दे

इन रचनाओं के साथ अल्वी साहब ने मिबारत की महफ़िल को परवान चढ़ाया. इस शायर के बाद पाकिस्तान की मशहूर शायरा किश्वर नाहीद की बारी थी. किश्वर नाहीद पाकिस्तान में ’!!!फेमिनिस्ट मूवमेन्ट’ में बहुत बड़ा नाम हैं. हुकूमत और सामाजिक दबावों के सामने न झुककर उन्होने अपनी आवाज़ बड़ी बुलन्द तरीके से निभाई है. ' बुरी औरत की आत्मकथा ' जैसी आत्मकथा लिखकर दुनिया भर का ध्यान अपनी ओर खींचने वाली किश्वर नाहीद को सुनना एक तारीख़ी एहसास था. विद्रोही तेवर के साथ किश्वर नाहीद के कलाम पेश कर औरत होने का एहसास कराया....!

मुझे नवम्बर की धूप की तरह मत चाहो
मुझे
इतना चाहो कि मुझमें चाहे जाने की ख्वाहिश जाग उठे.

मुझे
नवम्बर की धूप की तरह मत चाहो

कि
इसमे
डूबो तो तमाज़त में नहा जाओ
और
उससे अलग हो तो ठंडक को पोर-पोर में
उतरता देखो......
मुझे
सावन के बादल की तरह मत चाहो
कि इसका साया बहुत गहरा
नस
नस में प्यास बुझाने वाला

मगर
इसका वजूद

पल
में हवाए पल में पानी का ढेर

मुझे
शाम
की शफक की तरह मत चाहो
कि
आसमान के कर्गोज़ी रंगों
की तरह
मेरे
गाल सुर्ख मगर लम्हा बाद

कि
हिज्र में नहा कर रात सी मैली मैली

मुझे
चलती हवा
की तरह मत चाहो
कि
जिसके कयाम से दम घुटता है

और
जिसकी तेज़ रवी क़दम उखड देती है

मुझे
ठहरे पानी कि तरह मत चाहो
कि
इसमे
कँवल बन कर नहीं रह सकती


मुझे
बस इतना चाहो
कि
मुझमे
चाहे जाने की ख्वाहिश जाग उठे.......

मदनमोहन
दानिश के इस कार्यक्रम में जाने के बाद महसूस हुआ कि यदि इस कार्यक्रम में न आता तो निश्चित ही मैं एक तारीख़ी महफि़ल से महरूम रह जाता. शुक्रिया ’दानिश ’ साहब को जिन्होंने मुझे इस आयोजन में शरीक होने का मौका दिया. ’दानिश ’ साहब ने जिस कलात्मक-खूबसूरत- अनुशासित तरीके से इस कार्यक्रम को अंजाम दिया वह उनकी ज़हानत और उनके अदबी लगाव को दिखाती है. युवा दानिश ने ग्वालियर जैसे शहर में ’इबारत’ के माध्यम से जो साहित्यिक अलख जगाई है वह बेमिसाल है. इससे पूर्व इबारत के माध्यम से इस शहर को निदा फाज़ली ,शीन क़ाफ़ निज़ाम जैसे लोगों की सोहबत मयस्सर हो चुकी है. ’इबारत’ का यह प्रयास अदब के प्रति किसी ’इबादत’ से कम नहीं. उम्मीद है कि ’इबारत’ अदब की दुनिया में नयी ’इबारत’ लिखेगी।


(*** तस्वीर- नयी दुनिया )

नवंबर 03, 2011

शत शत नमन श्रीलाल शुक्ल जी को !


एक के बाद एक बुरी ख़बरें..... अभी जगजीत साहब के निधन से उबरना भी नहीं हो पाया था कि भारतीय साहित्य के गौरव श्रीलाल शुक्ल ने भी 28 अक्तूबर को हमसे विदा ले ली. ये अलग बात है कि वे पिछले कई वर्षों से अस्वस्थ थे, बिस्तर पर ही रहते थे. उनकी अस्वस्थता के चलते ही इसी 18 अक्तूबर को उन्हें 45वां ज्ञानपीठ पुरस्कार प्रदान करने के लिए राज्यपाल महोदय को लखनऊ के अस्पताल में जाना पड़ा था. इस साल 31 दिसंबर को श्रीलाल जी 86 वर्ष के हो जाते, मगर इन सब के बावजूद उनके निधन की खबर से एक झटका सा लगा....!

शुक्ल का जन्म 31 दिसंबर, 1925 को लखनऊ जनपद के गांव अतरौली में हुआ था. उन्होंने 1947 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातक परीक्षा पास की. 1949 में राज्‍य सिविल सेवा से नौकरी शुरू की. 1983 में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त हुए. उनका विधिवत लेखन 1954 से शुरू होता है. 'सूनी घाटी का सूरज' और 'अज्ञातवास' नामक उपन्यासों से अपनी लेखन यात्रा आरम्भ करने के बाद श्रीलाल जी ने उस उपन्यास की रचना की जिसने हिंदी साहित्य को एक नया पड़ाव दिया और व्यंग्य को एक नया आकाश सुपुर्द किया ......! 1968 में प्रकाशित 'रागदरबारी' के नाम से लिखी ये कृति हिंदी साहित्य की सर्वकालिक महानतम रचनाओं में से एक सिद्ध हुयी. राग दरबारी के सारे पात्र- स्थितियां भारतीय समाज के उस स्वरुप को निर्धारित करते हैं जिनके बीच में हमारा जीवन साँसें लेता है.... रुप्पन बाबू हों या वैद्य जी.... लंगड़ हो या कोतवाल साहब. भंग पीसने की अदा हो या कि वैद्य जी की चौपाल, तहसील में ठोकरें खाता आम आदमी हो या मेले -ठेले के बीच जीवन का उल्लास ..... राग दरबारी के हरेक प्रसंग में देशज स्थितियां विद्यमान हैं... हमारी वास्तविक जिंदगी को बयां करती हुईं. रागदरबारी की गौरवगाथा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसका अनुवाद अंग्रेजी के साथ-साथ 15 भारतीय भाषाओं में हुआ है. राग दरबारी के लिए उन्हें 1970 का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. रागदरबारी के अलावा भी वे उम्र भर लेखन साधना में जुड़े रहे, उनकी सक्रियता उनके 10 उपन्यास, चार कहानी संग्रह, नौ व्यंग्य संग्रह, एक आलोचना, दो विनिबंध और एक साक्षात्कारों की पुस्तक प्रमाणित करते हैं.

लिखने वाले तो यहाँ तक कहते हैं कि राग दरबारी के बाद हिंदी गद्य को दो भागों में बांट कर देखा जा सकता है-राग दरबारी पूर्व हिंदी गद्य और उत्तर राग दरबारी हिंदी गद्य. हिंदी साहित्य में व्यंग्य यदि मुख्य धारा में आया तो इसके लिए नि:संदेह श्रीलाल शुक्ल की युगांतरकारी भूमिका रही. साहित्य के सुधियों शायद ही कोई ऐसा होगा जिसने 'राग दरबारी' न पढ़ी होगी..... बल्कि शर्त इस बात पर ज़रूर लगाई जाती रहीं कि किसने रागदरबारी को कितनी दफा पढ़ा है. पाठकों को इस किताब का एक एक दृश्य और संवाद याद रहे...... ! देखा जाए तो राग दरबारी स्वतंत्र भारत के तमाम स्वप्नों और मूल्यों का कठोर यथार्थ प्रस्तुत करती ऐसी रचना है जो हमारे समाज- शासन- प्रशासन- व्यवस्था आदि का सही चित्रण और विश्लेषण करती है. यह रचना ऐसी सहज ऐसी भाषा में सामजिक ताना बाना बुनती है कि जो पाठकों के साथ सीधा रिश्ता जोड़ लेती है.... ठेठ अवधी भाषा के प्रसंग भी पाठकों को वही आनंद देते हैं जो उन्हें उनकी स्थानीय भाषा उपलब्ध कराती है. समय बीतता गया मगर इस रचना की जो आंच 1968 में जल रही थी उसमे वही तेवर 2011 तक कायम रहा. यह वो रचना है जिसने दिखाया कि यदि बात कायदे से कही जाए तो भूमंडलीकरण जैसी आंधी भी स्थानीयता की शक्ति को कम नहीं कर सकती.

राग दरबारी के अतिरिक्त उनके उपन्यास मकान, पहला पड़ाव और बिस्त्रामपुर का संत हिंदी उपन्यास के आंगन में अपनी तरह के अकेले वृक्ष हैं. बिस्त्रामपुर का संत में राजनीति, समाजशास्त्र और सांस्कृतिक अपकर्ष का जो मिला-जुला वृत्तांत बना है. उनके प्रयाण से कुछ समय तक पहले तक उनके ताज़ा व्यंग्य देश कि सभी नामचीन पात्र- पत्रिकाओं में छपते ही रहते थे....! हैरानी होती है श्रीलाल जी की इस जीवटता पर..... उनके प्रयाण से कुछ समय पूर्व तक उनकी चेतना सही सलामत रही....!

शुक्ल जी साहित्य के साथ कई अन्य कला रूपों के मर्मज्ञ थे. शास्त्रीय संगीत में उनकी गहरी रुचि थी. सभाओं, समारोहों, संगोष्ठियों में उनकी विद्वता और उनकी प्रत्युत्पन्नमति एक ख़ास आकर्षण पैदा करती थी. वे उन चंद रचनाकारों में से थे, जिन्होंने हिंदी की ताकत का एहसास विश्वस्तर पर कराया और जिनके लिए पाठकों ने भी अपने प्यार में कभी कमी नहीं होने दी. श्रीलाल जी के व्यक्तित्व में बौद्धिकता, सहजता और हार्दिकता का अद्भुत संतुलन था. अनुशासन के साथ जिंदादिली, यह उनकी पहचान थी. उन्होंने एक भरपूर यशस्वी जीवन जिया. उन्हें वर्ष 2009 के लिए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार, - वर्ष 2008 में पद्मभूषण, 2005 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा यशभारती सम्मान,1999 में बिस्रामपुर का संत के लिए बिरला फाउंडेशन द्वारा व्यास सम्मान, 1997 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा मैथिली शरण गुप्त सम्मान,1996 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा शरद जोशी सम्मान, 1994 में उप्र हिंदी संस्थान द्वारा लोहिया सम्मान, 1988 में उप्र हिंदी संस्थान द्वारा साहित्य भूषण सम्मान, 1987-90 तक भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद की ओर से एमेरिट्स फेलोशिप, 1978 में मकान के लिए मध्य प्रदेश हिंदी साहित्य परिषद द्वारा सम्मानित, 1981 में बेलग्रेड में अंतरराष्ट्रीय लेखकों की सभा में भारत का प्रतिनिधित्व किया...... इत्यादि ! इसके अतिरिक्त वे 1979-80 में भारतेंदु नाट्य अकादमी के निदेशक का कार्य दायित्व भी संभाला. इस कालजयी लेखक पर उनके 80वें जन्मदिवस पर उनके लिए एक पुस्तक 'श्रीलाल शुक्ल : जीवन ही जीवन' भी प्रकाशित हुई जिसमे डॉ. नामवर सिंह, राजेंद्र यादव, अशोक वाजपेयी, कुंवर नारायण और रघुवीर सहाय जैसे मूर्धन्य लेखकों के लेख हैं. पद्मविभूषण सहित दो दर्जन से ज्‍यादा सम्मान और पाठकों का अंतहीन प्यार-स्नेह ......... सचमुच जिस काबिल वे थे उन्हें वो मिला भी. साहित्य के आँगन में व्यंग्य की बेल रोपने और फलने फूलने का वातावरण तैयार करने वाले इस महान लेखक को नमन.... ! उनका जाना हिंदी साहित्य के लिए अपूर्णीय क्षति है जो शायद ही कभी पूरी किया जा सके....! जब तक हिंदी साहित्य रहेगा, श्रीलाल जी इस साहित्य के आकाश पर जगमगाते रहेंगे. श्रीलाल जी को सभी साहित्यप्रेमियों की तरफ से एक बार पुनश्च नमन.....!